सहयात्रियों के साथ / राजेश जोशी
सहयात्रियों के साथ
बढ़ता था उस दिशा में जहाँ
सड़क अंतत:एक स्वप्न बन जाती है,
एक अनिश्चित अफ़वाह
या फिर एक अस्फुट,अर्थहीन मंत्र
देवताओं को तलाशता था
पेड़ों के तनों और
सूखी झाड़ियों के भीतर
पुरानी रंगीन थिगलियों को
हाथों में उठाए अचरज से सोचता
उनके निहितार्थ क्या रहे होंगे?
लकड़ी के प्राचीन बक्सों को खोलकर
कोई किवाड़,कोई कुंडी ढूँढता था
जहाँ किसी ने
सृष्टि के आरम्भ से अब तक
दस्तक न दी हो
एक कच्चा-सा विश्वास था मेरे भीतर
कि पुरानी पांडुलिपियों के नीचे
अवश्य दबा रहता होगा
किसी गुप्त सुरंग का प्रवेश द्वार
जहाँ से नदियों तक पहुँचा जा सकता हो
समय के प्रारम्भ में
लिखकर रख दिया था उन्हें
लगभग हर प्रवेश द्वार के आगे
उन्हें कोई छूता नहीं था
वे समय के अंत तक वहाँ रहीं
वृद्ध द्वारपालों की तरह