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सहर और शाम से कुछ यूँ गुज़रता जा रहा हूँ मैं / 'नुशूर' वाहिदी

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सहर और शाम से कुछ यूँ गुज़रता जा रहा हूँ मैं
के जीता जा रहा हूँ और मरता जा रहा हूँ मैं

तमन्ना-ए-मुहाल-ए-दिल को जुज़्व-ए-ज़िंदगी कर के
फ़साना ज़ीस्त का पेचीदा करता जा रहा हूँ मैं

गुल-ए-रंगीं ये कहता है के खिलना हुस्न खोना है
मगर ग़ुँचा समझता है निखरता जा रहा हूँ मैं

मेरा दिल भी अजब इक सागर-ए-ज़ौक-ए-तमन्ना है
के है ख़ाली का ख़ाली और भरता जा रहा हूँ मैं

कहाँ तक इर्तिबात-ए-जान-ओ-जानाँ का तअल्लुक़ है
सँवरते जा रहे हैं वो सँवरता जा रहा हूँ हैं

जवानी जा रही है और मैं महव-ए-तमाशा हूँ
उड़ी जाती है मंज़िल और ठहरता जा रहा हूँ मैं

बहुत ऊँचा उड़ा लेकिन अब इस ओज-ए-तख़य्युल से
किसी दुनिया-ए-रंगीं में उतरता जा रहा हूँ मैं

‘नशुर’ आख़िर कहाँ तक फ़िक्र-ए-दुनिया दिल दुखाएगी
ग़म-ए-हस्ती को ज़ौक़-ए-शेर करता जा रहा हूँ मैं