साँझबाती - 2 / विमलेश शर्मा
दुनिया के भीतर दुनियावी कहलाने के लिए
एक भय को सँभालना होता है!
सँभालने की यह क्रिया ठीक वैसी ही है
जैसे अँधेरी गुफा-सी पगडंडी पर बढ़ते हुए
बुदबुद तारे छिपे हों श्याम-आकाश में
जीवन की डगर पर बढ़ते हुए
कुछ साथ रहता है, कुछ छूट जाता है
दोनों ही नियति (भाग्यचक्र)
दोनों ही एक सिक्के के दो पहलू
कैसा वैषम्य है, साथ को संसृति शंका की ओट देती है
और त्याज्य स्थिति के लिए कुछ क्रूर सम्बोधन गढ़ लेती है
मन सुनो! ऐसे दुरूह से गुज़रते
किसी पुरुष को अभागा
या बेचारा सम्बोधन!
और किसी स्त्री को प्रवंचना न दे देना!
क्योंकि शब्द की चोट मारक होती है
वह उस आस को दीमक-सी लील जाती है
जिसे जाने कितने दीपक प्रज्वलित कर
किसी मन ने यह संकल्प लिया था कि
मधुर-मधुर मेरे दीपक जल!
जीवन को जीना आसान नहीं होता
यहाँ एक जीवन के भीतर जाने कितने जीवन छिपे होते हैं!
बहुत कुछ होते हुए भी
कुछ नहीं होता यहाँ।
बहुत फ़र्क़ पड़ते हुए भी
सब ठीक-ठाक रहता यहाँ।
चलते हुए भी
बहुत कुछ ठहरा है यहाँ
और दिखती गहराई में सब कुछ उथला है यहाँ!