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साँझ गई सीपियाँ बटोर / कुमार रवींद्र
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भोर हुई
मछुआरे तट हुए कठोर
धूप को उतार गई काँपती हिलोर
जाल लाद कंधों पर
चले थके पाँव
पीछे चटटानों को
छोड़ गई नाव
दूर तक हवाओं के दर्द हैं अछोर
बूढ़े आकाशों में
पंखों की भीड़
अंधे सन्नाटों में
डूब गए नीड़
द्वीपों तक फैल गए सूरज के शोर
रेतीले टीले पर
हाँफते खजूर
झेलते रहे दिन-भर
लहरों को क्रूर
साँझ लौट गई शंख-सीपियाँ बटोर