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साँझ दुश्मन है / राकेश खंडेलवाल
Kavita Kosh से
साँझ तन्हाई की चुपचाप चली आती है
और अनचाहे मेरी आँख भिगो जाती है
साँझ दुश्मन है, कभी दोस्त नहीं थी मेरी
टुकड़े टुकड़े में बँटी चाँदनी दिखती ऐसे
फाड़ा हो प्यार का खत अपना किसी ने जैसे
सतरें हैं किन्तु इबारत नहीं दिख पाती है
साँझ तन्हाई की चुपचाप चली आती है
अजनबी रात के साये हैं प्रश्न चिन्ह बने
ख़्वाब धुँधलाते रहे याद की कीचड़ से सने
वक्त की पूँजी हवा छीन के ले जाती है
साँझ तन्हाई की चुपचाप चली आती है