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साँझ हो गई / रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’

साँझ हो गई
अनुरागी किरनें
कहीं खो गई,
बिखरे हैं कुंतल
घने तम-से
विचुम्बित गगन
तृष्णा मुखर
अतीत के वे स्वर
मौन हो गए
जीवन की तरंग
स्पर्श तुम्हारा
पुकार रस- भरी
मेरी उमंग
कण्ठ स्वाति बूँद को
कलपे बाट जोहे।