भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
साँस का सरगम टूट / अमरेन्द्र
Kavita Kosh से
साँस का सरगम टूटे इसके कि पहले
और थोड़ी देर मेरे साथ रह ले।
कौन जाने जनम मेरा हो-न-हो फिर
हो गया ही, तो मिलेंगे क्या पता है
मिल गए भी प्यार क्या ऐसा ही होगा
जिस तरह है आज, मन न मानता है
फिर मिले अवसर न कहने का कभी
आज तक जो अनकही हो बात, कह ले।
आज नभ को क्या हुआ ये, जल रहा क्यों
देखता हूँ, चाँद काला हो गया है
कल जो चन्दन के वनों में घूमता था
स्वप्न वह, सुन्दर चिता पर सो गया है
है बहुत सूनी जगह और रात काली
मैं अकेला हूँ, बहुत मन आज दहले।
यह अन्धेरा, यह अकेलापन असह्य है
मेरे साथी, साथ मेरे ही रहो तुम
गीत कल मैंने जो गाए थे, सुनाओ
कल कहानी जो कही थी, फिर कहो तुम
मैं सभी कुछ झेल लूँगा, पर अभी तो
दिल को बहलाओ कहीं से, कुछ तो बहले।