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साँस चले / त्रिपुरारि कुमार शर्मा
Kavita Kosh से
नींद की सतह पर जब भी कदम रखता हूँ
एहसास होता है कि
आंखों से गुज़र रही हो तुम
बहुत खुशनसीब हैं धड़कनें मेरी
जो तेरे लम्स को महसूस करती है
उदास सन्नाटा भी नर्म हो चला
सारे बदन में जान आ गई
कायम है अब तक रूह का गीलापन
और कोई आंच जलती है सीने में
हैरत से देखता है हवा का टुकड़ा
आज गर दीद हो जाए तो साँस चले