सांति-सँगराम / रामकृष्ण
हम धरती पर चान उगाबी, तूँ सूरूज के घाम।
दुन्नो से मिल नारा निकसे, बढ़े सांति-सँगराम॥
सांति अमर माटी के कन-कन में सिनेह बाँटेला
सत के पीढ़ा-पानी देके सुख-सपना आँटेला।
माँगेला आपुस के चकमक अपनापन के भाव,
घर-घर, गली-गली में पसरे असरा भरल हिआव॥
सांति दिया के जोत जगावे जे अन्हार घर-अँगना,
सुरिआएल सुध-बुध के सुर में जे साजऽ हे सजना।
आन्हर के ऊ नयन, आग पर पानी बरसावऽ हे,
अनबुझ, अझुराएल फंदा के सहजे सझुरावऽ हे॥
गौतम के जे बुद्ध बनौलक, ऊ धरती के बेटी,
असरल-पसरल सब अन्हार के टीपल करे नरेटी।
अप्पन-आन पुरान समझके जे सरसावे नेह,
सुखल परती धरती लागी बने अकासी मेह॥
सांति आम के लथरल फुनगी, रहगीरन ला नेवे,
जात-पाँत के भेद-भाव बिन सबके अतमा सेवे।
भूखल के जे अन्न दिआवे बनके अवढ़र दानी,
तातल, गरमी-जरल, पिअसला के जे देवे पानी॥
जिनगी के जखनी ललिआएत अगराएल ऊ साम,
जे सरधाएल सपना साँचत बनके पूरन काम।
खूत तमाएल दप-दप लाली भरले जे उत्साह,
बाउर मन में जोस जगौले साँच रहल जे चाह॥
एकधरम में नेक निकावल कुन्दा जइसन दीठ,
जीमन के सँगराम जीत के अदमी जाहे रीठ।
अदमी के नाड़ी में जहिआ तक गरमा हे खून,
घर दुआर, गाँवे जेवार ला मत हो जाहे सून॥
अपन पराया के गोटी बैठाबे में जे घूमत,
ऊ असली बंका के पदवी सहजे कइसे चूमत।
इ लच्छन न´ असली सँगरामी जिनगी के भाई,
चाहे केतनो हाड़-पसीना, पोछऽ करऽ लड़ाई॥
बीहड़ जंगल, घुप्प अन्हरिओ में हे जोत जरौले,
राह बनावे में मजूर बन पथर करेज बनौले।
मन के साध, देह के काबू में कैले जे मरदा,
ऊ सँगरामी तीन लोक में बिजई जेकर हिरदा॥
सच्चाई के रस्ता लागी उठा फावड़ा हाथ,
काँटे-कूसे चले असगरे जे न´ खोजे साथ।
ओकर करनी सोंचल-साँचल जोधा के गुन-साधक,
अप्पन जिनगी में गुनलक न´ कहिओ केकरो बाधक॥
सत औ असत बीच के खाई पाट सके जे भाई,
अपन-आन के भेद मिटावे लागी छेड़ लड़ाई॥
राकसपन के आनन-फानन में करके संघार,
जन-मन में सिनेह के दीया बरे करऽ परचार॥
कोई खाएत, कोई ताकत ई कइसन खेला हे,
भूखे मरे, कोई खा-खा के अइठन के बेला हे।
भूख-भरलपेटा जिनगी के बैर चलीजा काटे,
ढेला-ढुक्कुर मिलवे करतो नाला-ढोढ़ा पाटे॥