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सांप्रत मैं चिरंतन / राजेन्द्र शाह

दो शाश्वतों-
भविष्य और अतीत के
आलोक-छायामय गोलक<ref>गोल पिंड यानी पृथ्वी</ref> में खड़ा
मैं इसे उँगली के स्पर्श मात्र से
घुमाता रहूँ नित्य,
मैं सांप्रत<ref>वर्तमान</ref> ।

मैं सुई के अणिभर स्थान को
छुऊँ क्षण भर,
स्पर्श से मुक्त हो जाऊँ सत्वर<ref>शीघ्र</ref>,
ऎसी नृत्यमयी छटा में खेलूँ
गति चंचल तब भी मैं स्थिर ।

मेरे पास यह अवकाश<ref>शून्य</ref> विस्तृत
जिसके हित
मैं इस पंचतत्व के
संकल्प और साधन कितने अगणित
रचता रहूँ अनंत वर्म<ref>कवच</ref> में ।

असीम जो, जो अरे अतीन्द्रिय
उसे करूँ सीमित सत्व गोचर<ref>वह जिसे इंद्रियों से जाना जा सक</ref> ।

आनंद के सिरजते क्षण
विवर्तन में सांप्रत मैं चिरंतन ।
                            

मूल गुजराती भाषा से अनुवाद : क्रान्ति

शब्दार्थ
<references/>