साइकिल और डाकमुंशी / नील कमल
कहना पड़ता है
कि सब ठीक है
कहना पड़ता था
गाँव के डाकमुंशी को
कि सब ठीक है
जबकि इस ठीक होने में
इकलौते बेटे की
लम्बी बीमारी भी होती थी
जो अनकही होती थी
कहे शब्दों में कितना कुछ
होता है अनकहा,
सुखों की तह में, पैबन्द
होते हैं कितने-कितने दुःख
डाकमुंशी की साइकिल थी
कि थमती नहीं थी,
एक को दूसरे से
दूसरे को तीसरे से
और कितनों को कितनों से
जोड़ती थी साइकिल की
एक घिस चुकी चेन
कहना फ़िर भी पड़ता था
कि सब ठीक है
जबकि तार, अपशकुन की तरह
सवार होकर आते थे, डाकमुंशी की
साइकिल पर
दुनिया को मुट्ठी में कर लेने का
मुहावरा, अभी उतरा नहीं था
लोगों की हथेलियों में
डाकमुंशी ही बाँच दिया करते थे
ख़त, गाँव की सबसे बूढ़ी औरत के लिए
और जवाब भी लिख दिया करते थे
उसके कमासुत के लिए
जो कहीं धनबाद या रानीगंज से
उसके लिए, भेजना नहीं भूलता था मनीऑर्डर
दुनिया के दो अलग ध्रुवों पर
बसे, प्यार करने वालों के बीच
संवदिया, डाकमुंशी कह भी तो नहीं सकता था
कि सब ठीक नहीं है
आख़िर, पृथ्वी के दोनों गोलार्धों के
ठीक मध्य, खड़ी थी एक पुरानी साइकिल
जिसपर बैठा डाकमुंशी, यदि कह देता
कि सब ठीक नहीं है
तो उतर ही जाती साइकिल की चेन
हो जाता ग़ज़ब-सा कुछ ।