साइरिल का पुरस्कार / नवनीता कानूनगो
क्या तुम मानते हो की
जो तुम्हारी आदत के धनुष को
सुरमा के मैदानों में छोड़ आया था
वह एक पेन्सिल थी कोई बाण नहीं?
वह क्या है फिर जो घूमता हुआ उठता है कहीं नीचे से
और उतार देता है हमारे दिलों में
विषैली नोक वाली कहानी,
जो काफ़ी है जमाने के लिए
तुम्हारे चहेते यूरोप का भी ख़ून?
बताओ, क्या वह हिन्दू रात थी या मुसलमान रात
जब तुम झपट के ले गए थे मेरे दादा-दादी को पास की पहाड़ियों में...
और हमेशा के लिए नियत कर दी थी बेदखली?
वे लेकर गए थे केवल नाम
अपने घरों और आंगनों के अपने साथ
क्योंकि स्मृतियों से बनते हैं केवल नाम
और केवल स्मृतियों के साथ की जा सकती है छेड़खानी
एक उजड़े ताड़ों के देश में।
धूप में पकी भावनाएँ, नाक में आता गोबर से लिपा फर्श,
सुनहरी फूस का देश, अपनी बाड़ी और चूल्हे की रातें,
लल्लन फकीर का वह अनगढ़ गान, सब नाम हैं.
मगर चाँद के बाद सूरज मारा गया
ऐसा उन्होंने कहा होता अगर हमारी लाचारी देखने के लिए
वे जीवित रहते।
क्योंकि केवल मानचित्रण टपकता है हमारी पुराने ज़माने की छत से,
और हम छेद को बंद करने की कोशिश करते हैं एक चिपचिपी जीभ से,
और देखते है बीते-हुए साठ, सत्तर, नब्बे-वर्षीय तारों के चेहरे।
इतिहास धीमे-धीमे मारता है, मगर मार ज़रूर डालता है।
साइरिल तुम कौन हो?
मैं हूँ एक सत्ताईस बरस का बीता हुआ शरणार्थी कल
जिसमे किसी और को आरोपित करने की नहीं है क्षमता
और तुम्हारे परोपकार की क़ीमती चिकोटी से
जिसके गाल अभी भी लाल हैं।
अँग्रेज़ी से अनुवाद : रीनू तलवाड़