साकेत / मैथिलीशरण गुप्त / द्वादश सर्ग / पृष्ठ ८
शब्द शब्द से, शस्त्र शस्त्र से, घाव घाव से,
स्पर्द्धा करने लगे परस्पर एक भाव से।
होकर मानों एक प्राण दोनों भट-भूषण,
दो देहों को मान रहे थे निज निज दूषण!
प्राणों का पण लगा लगा कर दोनों लक्षी,
उड़ा उड़ा कर लड़ा रहे थे निज निज पक्षी।
कौतुक-सा था मचा एक मरने-जीने का,
संगर मानों रंग हुआ था रस पीने का!
क्रम से बढ़ने लगी युगल वीरों की लाली,
ताली देकर नाच रहे थे रुद्र कपाली।
व्रण-माला थी बनी जपा फूलों की डाली,
रण-चण्डी पर चढ़ी, बढ़ी काली मतवाली।
हुए सशंकित देव--कौन जय-वर पावेगा?
धर्म न क्या निज हानि आज भी भर पावेगा।
हँस कर विधि को हेर कहा हरि ने-“क्या मन है?
देव जनों का यही शेष पौरुष-साधन है!”
इधर गरज कर मेघनाद बोला लक्ष्मण से--
“तू ने निज नर-नाट्य किया प्राणों के पण से।
इस पौरुष के पड़े अमर-पुर में भी लाले,
किन्तु मर्त्य, तू पड़ा आज राक्षस के पाले!”
“मेघनाद, है विफल, उगलता है जो विष तू,
मत कर अपनी आप बड़ाई मेरे मिष तू।
जीवन क्या है, एक जूझना मात्र जनों का,
और मरण? वह नया जन्म है पुरातनों का!
किन्तु बिगाड़ा जन्म जनक तेरे ने जैसा,
तुझको पैतृक रोग भोगना होगा वैसा।
जन्मान्तर के लिए जान रख, जो पातक है,
वह अपना ही नहीं, वंश का भी घातक है,
यदि सीता ने एक राम को ही वर माना,
यदि मैं ने निज बधू उर्मिला को ही जाना,
तो, बस, अब तू सँभल, बाण यह मेरा छूटा,
रावण का वह पाप-पूर्ण हाटक-घट फूटा!”
हुआ सूर्य-सा अस्त इन्द्रजित लंकापुर का,
शून्य भाव था गगन-रूप रावण के उर का!
इधर उर्मिला बधू-वदन-लज्जा की लाली--
फूली सन्ध्या प्राप्त कर रही थी दीपाली!
जग कर मानों एक बार, जय जय जय कह कर,
पुनः स्वप्न सा देख उठे सब नीरव रह कर।
अब थीं प्रकट अशोक-वाटिका में वैदेही,
करुणा की प्रत्यक्ष अधिष्ठात्री क्या ये ही।
स्वयं वाटिका बनी विकट थी झाड़ी उनकी,
राक्षसियाँ थी घनी-कटीली बाड़ी उनकी।
उन दोनों के बीच घिरी थीं देवी सीता,
राजस-तामस-मध्य सात्विकी वृत्ति पुनीता।
एक विभीषण-बधू उन्हें धीरज देती थी,
या प्रतिमा-सी पूज आप वह वर लेती थी।
“अब प्रभु के ही निकट देवि, अपने को जानों,
मेघनाद क्या मरा, मरा रावण ही मानों।
सारी लंका आज रो रही है सिर घुन कर,
रावण मूर्च्छित हुआ शुभे, रथ में ही सुन कर।
प्रभु बोले--‘उठ, जाग, बाण प्रस्तुत है मेरा,
मैं सह सकता नहीं दुःख रावण, अब तेरा!’
मेरे स्वामी धन्य, हुए उनके पद-सेवी,
अरि का भी यों दुःख जिन्हें दुस्सह है देवी।
रहता कहीं सचेत समर में रावण क्षण भर,
उसे आज ही शोक-मुक्त करते उनके शर।”
तब सीता ने कहा पोंछ आँखों का पानी--
“सरमे, क्या दूँ तुम्हें? जियो लंका की रानी!”
“वसुधा का राजत्व निछावर तुम पर साध्वी,
रक्खे मुझको मत्त इन्हीं चरणों की माध्वी!
तुम सोने की सती-मूर्ति, शम-दम की दीक्षा,
दी है अपनी यहाँ जिन्होंने अग्नि-परीक्षा।”
भर कर श्वासोच्छ्वास अयोध्या-वासी जागे,
दीख पड़े गुरुदेव सभी को अपने आगे।
बोले मुनि--“सब लोग सजाओ अपने मन्दिर,
अपनी उर चिर-अजिर-मूर्त्ति को पाओ फिर फिर।”
गूँजा जय जय नाद, गर्व छाया जन जन में,
वह उमड़ा उत्साह लगा स्वागत-साधन में।
सैन्यजनों ने फेंट अनिच्छा पूर्वक खोली,
“निकली नहीं उमंग?” वीर-बधुएँ हँस बोली--
“वानर यश ले गये!” “प्रिये, देखा है सब तो,
अश्वमेघ की बाट जोहनी होगी अब तो!”
मज्जन पूर्वक सुधा-नीर से पुरी नहाई,
उस पर उसने वर्ण वर्ण की भूषा पाई।
लिख बहु स्वागत-वाक्य सुपरिचय दे रति-मति का,
वासकसज्जा बनी देखती थी पथ पति का!
आया, आया, किसी भाँति वह दिन भी आया,
जिसमें भव ने विभव, गेह ने गौरव पाया।
आये पूर्व-प्रसाद-रूप-से मारुति पुर में;
प्रकटे फिर, जो छिपे हुए थे सबके उर में।
अपनों के ही नहीं, परों के प्रति भी धार्मिक,
कृती प्रवृत्ति-निवृत्ति-मार्ग-मर्यादा-मार्मिक,
राजा होकर गृही, गृही होकर सन्यासी,
प्रकट-हुए आदर्श रूप घट घट के वासी।
पाया, हाँ, आकाश-कुसुम भी हमने पाया,
फैलाता निज गन्ध गगन में पुष्पक आया।
अगणित नेत्र-मिलिन्द उड़े, प्रभु-गुण-रव छाया,
मानुष-मानस लाख तरंगों से लहराया!
भुक्ति विभीषण और मुक्ति रावण को देकर,
विजय सखी के संग शुद्ध सीता को लेकर।
दाक्षिणात्य-लंकेश अतिथि लाकर मन भाये,
आतिथेय ही बने लक्ष्मणाग्रज घर आये।
भरत और शत्रुघ्न नगर तोरण के आगे,
मानों थे प्रतिबिम्ब प्रथम ही उनके जागे।
कहा विभीषण ने सुकण्ठ से सुध-सी खोकर--
“प्रकटित सानुज राम आज दुगुने-से होकर!”