सागर का सभागार / दिनेश कुमार शुक्ल
सत्य को असत्य
और यथार्थ को आभास में
डूबते देख
तेजी से निरर्थक होते शब्दों
और परित्यक्त सिद्धान्तों के संग-संग
हाशिये की ओर ठेले जाते हुए
कब तक मुस्कुराते रहोगे
संसार की निस्सारता पर
तुम्हारे चेहरे की मांसपेशियाँ
नियन्त्रण से बाहर
जाकर थरथराने लगेंगी
जानता हूँ
उस भूकम्प पर भी
करोगे तुम नियन्त्रण
किन्तु ऐसा करने में ही
फट जायगा ब्रह्मांड
धुँधला होता हुआ
सब कुछ अचानक
दूर जाता
दूरियों में घुलता चला जायगा
तिस पर भी
कुछ-न-कुछ
दिखता ही रहेगा सदा-
सागर में डूबे नाविक की आँखें
मँडलाते शार्कों तिमिंगलों और कृमियों को
देखती हैं
और मुस्कुराती रहती हैं धुँधला-धुँधला
महासागर के सभागार में
चलती रहती है बहस
मत्स्य-न्याय के सिद्धान्त में भी
संशोधन और अराजकता के लिए
स्थान बना कर रखा जाता है
बड़ी उदार और खुली बहस
चल रही है महासागर के सभागार में...।