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सागर मुद्रा - 11 / अज्ञेय

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 सोच की नावों पर
चले गये हम दूर कहीं;
किनारे के दिये
झलमलाने लगे।

फिर, वहाँ कहीं, खुले समुद्र में
हम जागे। तो दूर नहीं
थी दूर उतनी : चले ही अलग-अलग
हम आये थे। लाये थे

अलग-अलग माँगें।
तब, वहाँ, सुनहली तरंगों पर
हकोले हम खाने लगे।
ओह, एक ही समुद्र पर
एक ही समीर से सिहरते

कौन एक राग ही
हमारे हिये गाने लगे!

सं. 8 बर्कले (कैलिफ़ोर्निया), अक्टूबर, 1969