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सागर मुद्रा - 1 / अज्ञेय
Kavita Kosh से
आकाश
बदलाया
धूमायित
भवें कसता हुआ
झुक आया।
सागर सिहरा
सिमटा
अपनी ही सत्ता के भार से
सत्त्वमान
प्रतिच्छायित
भीतर को खिच आया।
फिर सूरज निकला
रुपहली मेघ-जाली से छनती हुई
धूप-किरनें
लहरियों पर मचलती हुई बिछलती हुई
इठलायीं।
तब फिर
वह मानो सिमट गयी
अपने भीतर को : दीठ खोयी-सी
सत्ता निजता भूली, सोयी-सी
लून लदी भीजी बयार से
मेरी आँखें कसमसायीं,
मैं ने हाथ उठाया-कि मेरे अनजाने
उस के केशों के धूप-मँजे सोने का
गीला जाल
मेरे चारों ओर
सहसा कस आया।
मांटैरे (कैलिफ़ोर्निया), मई, 1969