भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

सागर मुद्रा - 1 / अज्ञेय

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

 
 आकाश
बदलाया
धूमायित
भवें कसता हुआ

झुक आया।
सागर सिहरा
सिमटा
अपनी ही सत्ता के भार से
सत्त्वमान
प्रतिच्छायित

भीतर को खिच आया।
फिर सूरज निकला
रुपहली मेघ-जाली से छनती हुई
धूप-किरनें

लहरियों पर मचलती हुई बिछलती हुई
इठलायीं।
तब फिर
वह मानो सिमट गयी

अपने भीतर को : दीठ खोयी-सी
सत्ता निजता भूली, सोयी-सी
लून लदी भीजी बयार से
मेरी आँखें कसमसायीं,
मैं ने हाथ उठाया-कि मेरे अनजाने

उस के केशों के धूप-मँजे सोने का
गीला जाल
मेरे चारों ओर
सहसा कस आया।

मांटैरे (कैलिफ़ोर्निया), मई, 1969