भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
सागर हो गया मन / रमेश रंजक
Kavita Kosh से
धार ने काटी नरम चट्टान
खादर हो गया मन !
घा को देकर
सजल सुकुमार चिकनाई
डिम्ब - से कच्चे घरौन्दे
फोड़ लहराई !
कन्दराओं से हुई पहचान
नागर हो गया मन !
थकन जलनिधि में नहाकर
हो गई निश्चल
अब न खाती कान
यातायात की हलचल
भूलकर छोटा - बड़ा अपमान
सागर हो गया मन ।