भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

साजन के ढिग कैसे जाऊँ / रामगोपाल 'रुद्र'

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

धूलि-बसन तन पर है,
लाचारी दुहरी मन पर है;
आई मधुर मिलन की रात
कुंज-निलय कैसे मैं जाऊँ?

अविकच कलियोंवाली
ललक रही जीवन की डाली;
बन्‍ध बने अपने ही पात
प्राण-परस कैसे मैं पाऊँ?

एक न संग सहेली,
छोड़ गई सब निपट अकेली;
साध बनी मधु की सौगात
भेंट उन्हें कैसे पहुँचाऊँ?

चादर ऐसी काली!
तिस पर पूनम की उजियाली!
पंच लगाए बैठे घात
आँगन से कैसे बहराऊँ?

लाज न जब तक छूटे,
कुल का बन्‍धन कैसे टूटे?
उतरूँ, बनकर अतट प्रपात,
सरिता बन सुख-सिन्‍धु समाऊँ!

नाम तुम्हीं अब टेरो,
घेरे मेरे सहज निबेरो;
निरावरण कंटकमय गात
फूलों की डलिया कर लाऊँ!
साजन के ढिग ऐसे जाऊँ!