भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
साज़िश में अध्यात्म / नील कमल
Kavita Kosh से
अगली बार गाँव जाने तक
फिर कोई बगीचा
ऊसर की चादर ओढ़ चुका होगा
अन्न-प्रसवा माटी
रेत के तहों में दबी होगी
उनकी मैली-कुचैली
कथरियाँ धुली जा रही होंगी
अब बाग-बगीचे
गाँवों की पहचान कहाँ रह गए
मृतकों के घण्ट
किस पीपल से लटकाए जाएँगे
इस सोच में डूबा होगा गाँव
आम का वह आख़िरी पेड़
लिख रहा होगा अपना त्यागपत्र
वनस्पतियों का पलायन
ग्राम देवता के कानों में अलार्म-सा
बजता होगा
और सारा गाँव किसी साज़िश के तहत
अध्यात्म में डूबा होगा ।