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साझा श्वास/ प्रताप नारायण सिंह

मैं राख से नहीं,
मिट्टी के गर्भ से उठा हूँ,
जहाँ दबे थे अनगिनत बीज
और उनकी जड़ों ने
धीमे-धीमे धरती के हृदय को छुआ था।

स्वप्नों की तहों में
मुझे मिली थी एक आभा--
जैसे मंदिर के गर्भगृह में
धीरे-धीरे जलता दीपक।

मैंने तुम्हें देखा
सूखी नदी के तट पर
अचानक झरने के उद्गम की तरह,
जैसे अँधेरे में
अनायास उभर आया हो
चाँद का एक टुकड़ा।

तुम्हारे भीतर उतरते हुए
मुझे अपना ही प्रतिबिंब मिला,
पर बदला हुआ--
मैं तो वही था,
पर अधिक गहन,
अधिक तरल,
मानो समय ने
मेरा स्वयं से परिचय कराया हो।

अब मैं जानता हूँ
प्रेम चोरी नहीं है,
और न ही कोई उपहार,
यह तो वह श्वास है
जिसे हम दोनों
साथ-साथ लेते हैं,
और हवा हमें
एक ही वृक्ष की
दो डालों पर टिका देती है।