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सातमोॅ सर्ग / अंगेश कर्ण / नन्दलाल यादव 'सारस्वत'

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रात भरी नै सुतलै कुन्ती
कत्तेॅ-कत्तेॅ बातोॅ केॅ लै,
असगुन एक्को जरा टरै नै
ढाढ़स अपना केॅ दै, टालै।

पर बैतलवा आवी घेरै
सौ-सौ वही सवालोॅ केॅ लै,
”की कर्णे ई मानी लेतै?
की भुलतै ऊ, जे दुःख सालै,“

”माय छिकौं तेॅ एकरा सें की
माय के करम-धरम की करलौं!
कोखी के बच्चा केॅ जनतै
गंगा के लहरोॅ पर धरलौं।“

”ऊ बचलै तेॅ अपने भागें
अपने भागें आय खड़ा छै,
की कोमल ऊ होतै मन सें
समझैबोॅ कुछ कठिन बड़ा छै।“

”कोय तरह नै मानेॅ पारेॅ
माय जों छेकां तेॅ यै सें की,
घाव कना बोली सें भरतै
ओकरोॅ मन कॅे दुःख दै जे की?“

”मतर यही सोची केॅ रुकबोॅ
भारी विपद बुलैबोॅ छेकै,
एकेक करी केॅ पाण्डव मरतै
सबटा लाल नसैबोॅ छेकै।“

उठतैं हेनोॅ बात, तुरत ऊ
उठलै मन केॅ बान्ही कुन्ती,
भोर निकलला सें ही पहिलें
घर छोड़लकै ऊ कुलवन्ती।

धतपत-धतपत असकल्ले ही
गंगा तट पर आवी गेली,
असगुन, सगुन जहाँ जे छेलै
सबकेॅ अपनोॅ पीछू ठेली।

गंगा-तट पर देखै छै की
खड़ा कर्ण छै जल के बीचोॅ,
कूल-किनारा कुछ पीछू छै
जल छाती सें कुछुवे नीचोॅ।

हौले-हौले सूरज उठलै
बित्ता भर सें हाथ भरी तक,
फेनू बाँस भरी तक उठलै
कुन्ती-मन में उमड़ै सौ शक।

आधोॅ दिन पूजै में रहलै
कर्ण होनै केॅ एक्के ध्यानें,
सोचै छै कुन्ती ई मन सें
केकरोॅ की मन में, के जानेॅ।

तभिये पड़लै नजर कर्ण के
कुन्ती ऊपर विस्मित भेलै,
बस ऊ में सूर्य खड़ा रं
आरो कोय वहाँ नै छेलै।

”के छेकौ तेां देवी, कैन्हें
ठाड़ी छोॅ ई मनझमान रं,
की चाहै छोॅ, की दुःख तोरा?
उड़लोॅ-उड़लोॅ धीर-प्राण रं।“

बात सुनी केॅ कर्णोॅ केरोॅ
बोली उठलै कुन्ती सुख सें,
”पूत, तोहें जेठोॅ हमरे ही
सुनलेॅ हौभौ पिताहौ मुख सें।“

”बेटा, बेर बहुत्ते करी केॅ
ऐलौं, हमरा ई लेॅ दुःख छेॅ,
लेकिन पूत कही केॅ तोरा
की बोलौं कि कत्तेॅ सुख छेॅ।“

”लहू रहै छै हरदम गाढ़ोॅ
पानी सें-ई बतलैबोॅ की;
कुछ लेना नै, लौटोॅ बेटा
तोरा पैलोॅ छी, पैबोॅ की।“

”तोहें हमरोॅ जेठे नै छोॅ
सब्भे टा गुण में भी जेठोॅ,
खाली हमरे ही न आबेॅ
भाय सिनी रोॅ दुःख केॅ मेटोॅ।“

”दुर्योधन के पच्छ नै ला तों
भाय पाण्डवोॅ में जाय बैठोॅ,
ऊ व्यवहार करोॅ तों आबेॅ
जे व्यवहार करै छै जेठोॅ।“

”रोकोॅ महाप्रलय केॅ तोहें
भाय-भाय में खून-खराबी,
तोरोॅ रुकथैं, रुकतै सबटा
कहाँ बिगड़लोॅ छै कुछ आभी।“

जानी केॅ सब बात माय सें
कर्ण झुकी ऐलै गोड़ोॅ पर,
बेसुध होलै माय केॅ पावी
पर हतभागोॅ के मोड़ोॅ पर।

निकली ऐलै लोर दुनू दिश
आँख भींजलै दू-दू जोड़ी
ममता, भक्ति दै गलबाँही
उपटै, भेद कहीं पर छोड़ी।

माय के ध्यान करी कर्णोॅ के
हृदय फूल रं गमकै-महकै,
लेकिन मन रोॅ इक कोना में
कुछ हेनोॅ गूरे रं टहकै।

आखिर बड़ी विनय सें कर्णे
मन खोली केॅ राखी देलकै,
”माय बहुत्ते देरी होलौं
भाग्यें देरी सें सुध लेलकै।“

”इखनी जेना सब विरोध केॅ
ऐलौ तोहें दूर करी केॅ,
तखनी कैन्हें तेजी देलौ
हमरा, सबसें तुरत डरी केॅ?“

”अपयश, सब निन्दा केॅ हम्में
की नै सहलौं, सहतैं ऐलों,
एक बार गंगा में बही केॅ
वैतरणी में बहतैं ऐलौं।“

”जों दुर्योधन साथ नै देतियै
आय कहाँ के होतियौं हम्में,
धरती निगली जैतियोॅ हमरा
आ मुट्ठी में लेतियौं यम्में।“

”भाग्य छिकै तेॅ दुर्योधन ही
सब हमरोॅ दुःख-सुख के साथी,
माय, केना दुर्योधन छोड़ौं
दुनियाँ कहतै हमरा घाती।“

”कहतै सुख लेॅ कर्णो आखिर
भूली गेलै दुःख के ऊ दिन,
जे हमरोॅ छाती में अभियो
धधकै सारा के ज्यों आगिन।“

”ऊ आगिन हमरा नै सुख सें
कभियो चैन लिएॅ देॅ जरियो,
हमरा नै लागै छै यै सें
छुटकारा पैबोॅ की मरियो।“

”एक यही किंछा छै आबेॅ
दुर्योधन लेॅ प्राण गमाबौं,
हुनके जिय हँकैलेॅ ऐयौं
रण सें जों घूरी केॅ आबौं।“

”आरो के छै विजय जे रोकेॅ
एक अकेलोॅ अर्जुन छोड़ी,
अर्जुन चाहेॅ तेॅ अपना दिश
विजय रथोॅ केॅ देॅ वैं मोड़ी।“

”हम्में दुर्योधन के पहिलें
ओकरोॅ बादे कुछ छै कांही,
हमरोॅ दुःख जेठोॅ के रौदा
दुर्योधन हेनोॅ में छाँही।“

”माय कहोॅ हेना में केना
दुर्योधन केॅ हम्में छोड़ौं,
चन्दन मेटी केॅ कपार के
अपने माथोॅ अपने फोड़ौं?“

”जे दुर्योधन केॅ, हमरौ भी
दुश्मन समझै-ऊ अर्जुन केॅ,
आरो जे अर्जुन के पीछू
ऊ सब्भे टा पाण्डव जन केॅ।“

”हम्में नै छोड़ेॅ पारेॅ छी
केकरौ भी अर्जुन के साथें,
ई रण में मरनै छै निश्चित
पाण्डव सब केॅ हमरोॅ हाथें।“

”जानै छी विद्या-बुद्धि में
पाण्डव के कोय जोड़ कठिन छै,
लेकिन यै लेॅ हीन समझबोॅ
कौरव जन केॅ ई निरधिन छै।“

”युद्ध यही बुद्धि लानै छै
फूट-द्वेष के सागर उपटै,
सद्भावोॅ पर हीन भाव ठो
जखनी गिद्ध बनी केॅ झपटै।“

”बड़ोॅ बुद्धि के की मतलब छै
छोटोॅ केॅ समझौ बस निर्धिन,
जो हेने छै, तेॅ जानी ला
पाण्डव लेॅ ठाढ़ोॅ छै दुर्दिन।“

”माय, भांगटोॅ केॅ नै लानोॅ
भांगटोॅ केॅ सड़ियाना ही छै,
दुर्योधन लेॅ सब दै देवै
एकरा लेॅ ई जीवन की छै!“

बात सुनी केॅ काँपी उठलै
कुन्ती पोरे-पोर बहुत ही,
ढरकी गेलै एक बारगी
दू आँखोॅ सें लोर तुरत ही।

अँचरा से पोछी लोरोॅ केॅ
कुन्ती बोली पड़लै बेकल,
”पूत कहाँ के न्याय तोरोॅ ई
हमरे भागोॅ सें कैन्हें छल?“

”पाँच पूत के साथ अभागिन
लै किंछा केॅ लौटी जैतै,
खूब न्याय ई तोरोॅ बेटा
तोरोॅ ई की दान कहैतै?“

”बहुत सुनी केॅ ऐलोॅ छेलां
तोहें पूत बड़ा दानी छोॅ,
आबेॅ समझी गेलां हम्में
छोॅ कंजूसो, अभिमानी छोॅ।“

”हम्में सोची केॅ ई ऐलां
छवो पूत के माय कहैबोॅ,
नै जानै छेलौं कि आबी
पूतहीन के दुःख लै जैबोॅ।“

”माय के कोख दुखाबोॅ नै तों
लहू देह के झुठलाबोॅ नै,
दुःखिता केॅ दुःख दै के प्रण सें
एत्तेॅ दुःख केॅ पहुँचाबोॅ नै।“

”माय अगर जों हमरोॅ प्रण सें
लहू-कोख केॅ दुःख पहुँचै छै,
कर्ण वहाँ पर मरले दाखिल
कर्ण कहाँ पर निश्चय नै छै।“

”वै में माय के लाज नै राखौं
केन्हौं नै कभियो ई होतै
ऊ बेटा की खुद जे हाँसै
माय जहाँ पर फटी रोतै।“

”प्रण करलौं अर्जुन केॅ छोड़ी
पकड़ी सब केॅ छोड़ी देबै,
आरो पाण्डव लुग आबी केॅ
आँख मुनी रथ मोड़ी लेबै।“

”लेकिन बेटा, पाँच पूत के
माय कहाँ रहबै तभियो भी,
जे दुःख पैबोॅ तोरै सें ही
ऊ दुःख पैबोॅ तोरै सें ही
ऊ दुःख की मिटतै कभियो भी!“

माय-वचन केॅ सुनी कर्ण तेॅ
थकमरुवोॅ रं चुप भै गेलै,
दुःख-दुविधा के बादल-बिजली
आँखी के सरंगॉे में हेलै।

कुछ देरी लेॅ मौन रही केॅ
विह्वल कर्णे यहॅ कहलकै,
”पाँच पूत के मैये रहवा
जा कर्णें ई बोली देलकै।“

”जों मारै छै हमरा अर्जुन
तेॅ पाँचों ठो पूत सुरक्षित,
जों अर्जुन केॅ हम्में मारौं
तभियो पाँचोॅ सें नै वंचित।“

लौटी ऐवै पाण्डव कुल में
कौरव-दल कॅे जयश्री दै केॅ,
जानथौं खुश नै होबोॅ हम्में
पाण्डव केरोॅ पदवी लै केॅ।“

”जहाँ दंभ छै वंश-रक्त के
जहाँ द्वेष छै दीन नरी सें,
कर्ण कना खुश होतै मिलियो
हेनोॅ जित्तोॅ मनुज मरी सें।“

”लेकिन कर्ण वचन से बंधलोॅ
दानोॅ सें पीछू नै हटवै,
पाँच पूत के दान निरापद
पाण्डव भले कहैबै-घटवै।“

”एकरा सें अच्छे ई होतै
हमरे प्राण उठौ अनचोके,
सीधे तेॅ मृत्यु छै मुश्किल
अर्जुन मारौ हमरै धोखे।“

चुप भेलै ई बात कही केॅ
आँख मुनी ऐलै कर्णोॅ के,
श्याम पड़ी गेलै कुछ आरो
कुन्ती एक कंचन वरणोॅ के।

कुछ बोलेॅ, नै साहस होलै
लौटी गेलै गुमसुम कुन्ती,
अन्देशा मंगल के बीचोॅ
पूरा होलोॅ टुटलोॅ मिनती।