सातम मुद्रा / भाग 1 / अगस्त्यायनी / मार्कण्डेय प्रवासी
शरदक प्रसाद गुण-सुसम्पन्न
ऋतु काव्यक पांती पाँतीमे
रभसै अछि
मधु मालती छन्द
खंजन फुदकै अछि मन्द मन्द
अछि धान खेतमे गभा गेल
गम गम करैछ
नासिका रन्ध्र
बीतल वर्षा, छँटि गेल ताप
गंगा यमुना अछि शान्त भेल
चढ़ि रहल
समयपर शिशिर व्याप
नहि सूर्य दैत अछि आब शाप
संयत अछि वातावरणक स्वर
चर्चित अछि
परिवर्त्तनक ज्ञाप
हंसक दल फेर उड़ लागल
तिमिरक छातीपर ज्योति-पर्व
चढ़ि गेल,
प्रकाश प्रभा जागल
मदमत्त लगै’ अछि दुर्वा-दल
फुनगीपर पुनि ओसक मोती
संचित छै’
अछि दर्पे दागल
छै’ पूर्ण जुआनी प्राप्त चास
कृषकक सूखल अधरोपर छै’
कल्पना किरणमय-
आस - हास
मनमे जाग्रत छै’ तन विकास
कुमुदिनी पीबिक सोम सुधा
दै’ अछि
रूपक धवलित सुवास
बाँटैछ वायु शीतामंत्रण
मध्यम लयमे नर्तकी प्रकृति
क’ रहलै’ अछि -
नूपुरक ध्वनन
भेलै’ जनु पीयूषक वर्षण
श्वासक सुरमे सांगीतिक सुधि
अछि ताल बद्ध -
तुक तान क्वणन
ऋषिवर अगस्त्य लोपाक संग
आश्रमक ऋचायित परिसरमे
करइत छथि
वार्त्ता अन्तरंग
‘‘बदलल अछि समयक राग रंग
लोपे! प्रारम्भ करी हम सभ
किछ वर्षक
तीर्थांटन - प्रसंग
रुचलै लोपाके ऋषिक बात
आश्रमक भार लेलक दृढ़स्यु
ऋषि ऋषिकाके
क’ मुक्तगात
गतिशील भेल मद्धिम बसात
रथपर चढ़ि ऋषि दम्पति काशी
पहुँचला -
पनड़ि गंगाक कात
सभठाँ छीटल छल भाव भक्ति,
सुरसरिके कयलनि ऋषि प्रणाम:
- ‘गंगे! तो
आद्या शिवा शक्ति’
भेलनि प्रगाढ़ काव्यानुरक्ति
झहरलनि नयनसँ निर्मल जल
जगलनि अपूर्व
कल्पना - शक्ति:
‘‘आसिन्धु हिमाचल हे सुरसरि!
भारतकक सांस्कृतिक शुचिताके
छह सरस बनौने
ससरि - पसरि
छह तन मनपर तो ही सभतरि
यमुना हो अथवा सरस्वती
तो ही दै’ छह -
अन्तिम परिणति
जाधरि गंगायित नहि सागर
ताधरि कावेरी रहि अशान्त
छू बैछ न सिन्धुक
उर - सागर
जे गंगा, ते गंगासागर
उत्तर क्षेत्रक हे ग्रामीणा!
दक्षिण तोरेसँ
अछि नागर
तो ही संस्कृत तो ही संस्कृति
तो ऋत यात्रा गाथा-प्रतीक
तो आर्यावर्त्तक
आर्य - प्रकृति
सम्भव न कतहु तोहर अनुकृति
हे चिर पुण्ये! हे चिर धन्ये!
हरि लै छह तो
प्राकृतिक विकृति
हे भागीरथी सुकाव्य सिद्धि
उपमा उपमान - विहीना हे!
तो अक्षरशः
सार्थक प्रसिद्धि
तोहर जलमे आरोग्य - वृद्धि
हे शुभदे, सुजले, शुचि सुफले!
हे विश्वनाथमयि
ऋचा - ऋद्धि!
तो ही हिम पाषाणक करुणा
तो सर्वश्रेष्ठ ठोसक तरला
तो चिर प्राचीना
चिर अधुना
तो सारस्बत वरुणक वरुणा
तो लक्ष्मीश्वर विष्णुक पाल्या
किछु दिन
जाह्नवी छली कहुना
सत्ताक शीर्ष नहि थामि सकल
तोरा, तो जन गण मध्य आबि
कयलह जगके
सभ्यता - सबल
तोहर जलसँ अध्यात्म धवल
हे सर्वोषाधिमयि प्राण-शक्ति
हे मुक्ते! दै’ छह
मौत्तिक बल’’
देखल ऋषि सूर्योदयक दृश्य
मणिकर्णिकाक जल-कुण्ड-मध्य
गैरिक रवि-छवि
जनु हो हविष्य
सुझलनि नहि कोनो प्रश्न पृश्य
कहलनि: ‘‘लोपे! गंगेसँ अछि
भारतक भूमि
बनि सकल कृष्य’’
ठमकल छल सूर्यक बाल्य-काल
पश्चिम - दक्षिणमे जागल हो
जनु अति हिंसक भ’
तिमिर - व्याल
लगलनि कि बजाक’ ढोल झाल
देवगण कहै छथिः ‘‘ऋषि अगस्त्य!
अछि विन्ध्य
बनि रहल गगन भाल’’
तखने सोझाँमे ऋषि मुनिगण
भ’ ठाढ़ विनम्रित मुद्रामे
कयलनि अगस्त्यके
आर्त्त - नमन