सातवाँ पुष्प / नारी उत्थान मंत्राणी से भेंट / आदर्श
थोड़ी दूर चलने पर
सूर्यमुखी और कवि
पहुँचे उस छोर पर,
जहां बिना प्रयास के ही
जान पड़ा सहसा कि
यहीं है
आवास मंजु
श्री चमेली महारानी का,
जो है मंत्राणी
पुष्पनगर में
नारी उत्थान की।
झोंका मंद शीतल
सुगंधित समीर का
आया और
उसने उन्माद दिया,
लहरायी प्रेम पीड़ा
हृदय हृदय में
हिला चित्त कवि का।
नभ ओर नजर गयी
देखा वहां उसने
चिड़ियों की टोलियां
दिन भर चारा चुगने के लिए
दूर दूर बच्चों से
उत्कंठा विचलित,
जा रही थीं
घोंसलों को अपने।
घोंसले बने थे
पहचाने हुए पेड़ों में,
मंजिल को पार कर
उन्हें पहुँच जाना था।
आसमान में ही
दिखलायी पड़े सूर्य देव
चिड़ियों से भी
जो दमनीय देख पड़ते थे,
पश्चिम दिशा को
ढलते ही चले जा रहे थे।
प्रेयसी की खोज में
बीता था सारा दिन
वेदना में, ताप में,
विरहानल ज्वाला में
दग्ध रहे होते,
कहीं न दिखलायी पड़ी
प्रिया पृथ्वी के ऊपर।
परलोक जाते हुए
क्यों काँपते थे वे?
भयभीत होकर क्या सोचते थे
यही परिणाम
कहीं वहां भी न प्राप्त हो?
चंचल सुकुमारी वह-
जहाँ कहीं जाते हैं-
वहीं से,
कुछ ही क्षण पहले
वह भाग खड़ी होती है।
संध्या में झलका था
हृदेश्वरी का हंसता मुख
इसी से तो संध्या ओर
ललक कर दौड़े थे,
किन्तु हतोत्साह हुए
परख कर अंतर-
प्राणेश्वरी का मुँह
पंकज सा था खिला
और कहां यह था कुम्हलाया हुआ।
वह थी प्रकाशमयी,
और कहां सामने इसके
एक एक पल
जोड़ता ही जा रहा था
मोटी तहें
केवल अंधकार की-
जो विकराल रूप धारण कर
आरहा था निश्चित।
जितने बड़े थे
उतनी ही बड़ी दुर्गति।
काल को भी
जिसने बनाया था
तीनों लोक जिससे ही
पाते थे जीवन
वही वह काल नहीं पाता था
विरह व्यथा का जो अंत करे,
जलन कलेजे की
मिटा कर आनन्द दे।
खिन्नता, निराशा में मग्न
दीन दिनमणि
भागे चले जा रहे
लोक में न कोई
मुंह देख सके उनका।
कवि को भी याद आयी
अपनी उस प्रेयसी की
होगी राह देखती जो
मानवों के लोक से
जिसे छोड़
आ पड़ा था
वह पुष्पनगर में।
रूप वह चाहता था
जिसमें ललायी भरी
सत्य की, अहिंसा की
त्याग और प्रेम की।
शंका हुई-
सूर्य ही की भांति कहीं
उसकी यह खोज
बन द्रोपदी की चीर सी
केवल बढ़ाये नहीं
उसके मन की व्यथा।
देखा सूर्यमुखी ने
कविवर के चेहरे पर
अंतर की वेदना को
सहसा प्रतिबिम्बित,
बोली वह-
”श्रेष्ठ कवि,
इस रमणीय उपवन के द्वार पर
दक्षिण पवन
जब संदेश देती है,
प्रेम का, प्रसन्नता का
व्याकुल से, व्यग्र से
क्यों तुम दिखलायी पड़े?
आगे बढ़ो
वैभव चमेली की सुघरता का
मोह लेगा तुमको
और तुम पाओगे
मिला नहीं जो अब तक-
अनुपम रूप राशि,
सत्य ने, अहिंसा ने
जिसको सँवारा है
जिसकी सुगंध
यहां तक चली आ रही है
और हवा के सहारे
दूर दूर तक जा रही है।
नारी इस विश्व की
विधात्री, जन्मदात्री
वही इसे पाल पोस
सुंदर बनाती है,
और नयी कलियों के
खिलने का मार्ग खुले-
इसलिए फूलों को
डाल से गिराती हैं।
नारी का महान यह धर्म
नारी जान ले,
वंचिता न होवे
न असुंदर को प्रश्रय प्रदान कर
निष्फल बनावे
अपने ही इष्ट कार्य को,
यही नहीं, पुरुष पहचाने रूप उसका-
लेकर उद्देश्य यही
नारी उत्थान की
मंत्राणी है चमेली देवी।
हे कवि! तुम्हारा लक्ष्य
सफलता के पास आया,
आगे बढ़ो
चित्त निज
विचलित न होने दो।
किन्तु एक बात मैं कहती हूँ
उसको भी याद रखो-
जगत में सुन्दरता देखो,
दर्शनीय है
कारीगरी जिसकी,
वह कर प्रशंसनीय है,
इतना ही करना तुम।
कहीं, जो कि सुन्दर है
उस पर अधिकार भी हो-
यह विचार आये नहीं
छा न जाये ममता,
अनिष्ट होगा उससे।“
यह कह सूर्यमुखी
चली दु्रत गति से
आत्मलीनता से कुछ मुक्त कवि
पीछे चला उसके।
उपवन प्रासाद वह
श्रीमती चमेली का
घोषणा सी करता था-
यहीं धरती पर स्वर्ग।
आप उतर आया है।
बोली फिर सूर्यमुखी-
सुनो श्रेष्ठ कविवर!
झूठ बात
कहते हैं लोग-
काम और रति
रहते हैं स्वर्ग में,
सच पूछिये तो,
निर्विकार भावना में मग्न होकर
रस बरसाने के लिये
वे यहीं रमते।
देखो क्यारियों में
रस जितना भी बहता है
उनके करों की कला-
से ही वह झरता है
देश देश के निवासी
सुन्दर, विचित्र
रंग रंग वाली चिड़ियाँ
आकर यहाँ पर
निज देश भूल जाती हैं।
बाहर से
कोयल की कूक में
झरनों का गान
गूंज अपनी मिला कर के
मन में निराली
एक लहर उठाता है
जिनमें इन छोटी और
चंचलता भरी, रस प्यासी
चिड़ियों की प्यारी चह चह
रचती है संगीत
लय ताल मय प्यारा।
और कहीं दुनिया में
तुमको मिलेगी नहीं वाणी वह
काम और रति की
वह प्यार भरी वाणी है
जिसके कलोल से ही
ध्वनित हो रहा है
भवन श्री चमेली का
चलो अब तुमको मिला दूँ
उस रूपमयी देवी से
चित्त को संभालो
और नेत्र करो निर्मल
”देवि, जो आदेश दिया आपने
पालन करूँगा सब,
कैसे कहूँ?
चित्त पर काबू कहाँ मेरा रहा?
मैं तो आप चाहता हूँ
मेरे नेत्र निर्मल हों
इसी निर्मलता की खोज में ही
पुष्पनगर में
यहाँ आया हूँ।
लेकिन यहाँ के
तोखे मादक प्रभाव में
समल और निर्मल की
पहचान देने वाला
कुछ बाकी नहीं रहा है
विवेक अब मुझमें।
और, बतलाओ देवि,
कौन वह रमणी है,
जिसकी झलक मात्र पाने से
मेरे नेत्र तृप्त हुए जाते हैं,
और मेरी देह के
रोएँ खड़े होते हैं।
कौन वह चन्द्रमुखी
जिसकी आभा को देख
मेरे उर सागर में
ज्वार सा उमड़ता ही आता है।
देखो वह,
मंजुल मूर्ति
आगे आ गयी-
चन्द्रमा सा चेहरा और
चांदनी सी श्वेत साड़ी
अस्त होते
सूर्य किरणों की अरुणाभा में
शोभामयी लगती है कितनी।
अनुभव करता हूँ मैं
पुष्पनगर में आज
आगमन मेरा हुआ
जीवन का सबसे
अनमोल लाभ पाने को।
कवि के इन शब्दों को सुनकर
उत्तर में सूर्यमुखी बोली यों-
”कवि श्रेष्ठ, वे ही
श्री चमेली देवी,
जिनसे मिलने का
हम दोनों यहां आये हैं।
देखो एक मधुकर
आ रहा है गुन-गुन करता।
शायद वह द्वारपाल
श्री चमेली के अंतर्भाव का,
चाहता है जानना कि
किस अभिप्राय से
यहां पर आगमन हमारा है।
समझ सकोगे तुम्हीं
उसकी विचित्र भाषा
क्योंकि वह प्राणी है
तुम्हारे काव्य लोक का।
सूर्यमुखी उत्तर में
कवि ने कुछ भी न कह
सम्बोधित किया इस भाँति
उस भौंरे को-
”रसिक शिरोमणि हे भृंग
अपनी स्वामिनी से
कह दो संदेश मेरा-
मानवों के लोक से,
पीड़ा बड़ी पाकर
है कवि एक आया
जिसे विश्व शान्ति देने वाली
प्यार की ही खोज है
वह प्यार मानवों में
मुझको कहीं न मिला
स्वार्थ का ही राज्य
वहाँ सब ओर छाया है।
भौंरा उड़ा उसी ओर
जिस ओर
चन्द्रमा के आगमन के पहले ही
चांदनी सी छिटका रही थी
चमेली अलबेली
पीछे पीछे उसके
चल अनुराग भरे
कवि और सूर्यमुखी।
जाकर फिर लौट आया मधुकर
शायद कहने को,
चलो बैठी हैं
तुम्हारी प्रतीक्षा में
देवी जी।
कवि और सूर्यमुखी
उल्लसित होकर चले।
शीघ्र दोनों आये जहाँ
भौरों की
अतिशय प्रशंसा से ऊब कर
आगन्तुक स्वागत में
डगर नयी शान्ति की
पाने को व्याकुल थीं हो रही
वे नारी कुलभूषण।
हलकी मुसकान साथ
सूर्यमुखी और कवि
दोनों को
उन्होंने नमस्कार किया-
”देवि सूर्यमुखी“
बतलाओ मुझे
कारण वह
जिससे उठाया कष्ट
आपने पधारने का
मेरे योग्य सेवा भी बताइये।“
सूर्यमुखी उत्तर में बोल उठी-
ये हमारे कविवर हैं
मानवों के लोक से पधारे यहां
ऊब कर मानव के जालों से
पुष्पनगर में आप लोगों से
प्रेम का, अहिंसा का
सबक पढ़ने के लिए।
सूर्यमुखी बातें यह
करती थी चमेली से
इधर चमेली ओर
कवि की थीं आखें गड़ी,
पलकें झपती नहीं थीं
मानो चुपचाप कहती थीं-
आँखें यदि रूप यह
पी कर अधाना चाहें
रुकावट होगी नहीं
हमसे जरा भी।
कवि ओर एक दृष्टि डालकर
सूर्यमुखी भांप गयी
कविवर की बेबसी
और छिपी नहीं रही उससे
यह बात भी कि
चमेली अलबेली भी
प्रेम की कंटली
झाड़ियों के बीच उलझी।
सजगता ज्यों ही कुछ
कविवर में आयी,
रूप यह, छवि यह
आयी किस लोक से?
सोचा कहीं चन्द्रमा के
किरणों की संगठित
राशि तो नहीं है यह।
और यह ठीक-ठीक
जानने की इच्छा से
उसने बढ़ाया हाथ
जो चमेली हाथ
जो चमेली चंचला के
अंगों को स्पर्श कर
धन्य हुआ शीघ्र ही।
बढ़े हुये हाथ ने
किया जो अनुरक्त था
उससे दूर
हटने की इच्छा
नहीं दिखलायी पड़ी
श्री चमेली में भी।
दोनों को देख कर
ऐसी मोह भग्नता
सूर्यमुखी दबे-दबे पैरों से
वहां से विदा हो गयी।
बाधा एक हटी
और बाधा दूसरी जो थी
द्वारपाल भौंरों की
सो भी हटी,
कैसे? उसको भी बताता हूँ,
कंजवन में वे गये
प्रेम करने के लिए
और वहां जाकर फंसे कोष में
पंकज के सम्पुटित होने पर
बंद हुए, उसमें से
आ न सके बाहर।
सूर्य हुए अस्त
चमकते चन्द्र आये नभ में
दो दो चन्द्र मिलकर
अमृत बरसाने लगे
कवि और श्री चमेली
ऐसे मिले प्रेम से
जैसे जन्म-जन्म का
वियोग अंत आया हो।
बादल का गर्जन ज्यों
मोर वाणी को मिला
पाया शशि की कला ने
ज्यों कुई के फूलों को
त्यों ही मिले कवि
चाह भरी चमेली से।
बीती रात
पौ फटी,
सरोजों ने विकास पाया,
मधुकर उन्मुक्त हुए
प्रेम कैदखाने से,
श्री चमेली देवी के
अनूठे इस मन्दिर में
उनकी फिर भीड़ लगी।
देखा उन लोगों ने
एक नया कांड
छटा नहीं था जैसा कभी
पावन पुष्पनगर में।
मोह का व्यापार यह
कवि का
श्री चमेली साथ
मधुपों के
महारोष का
कारण हो गया।
टोली बांध दौड़े वे वहाँ
जहां थे राष्ट्र कवि
नव निर्माण की
तैयारियों में उलझे।
”कहाँ नारी उत्थान कार्य की
महत्ता, और
कहाँ श्री चमेली का
पापमय यह व्यवहार।
पुष्पनगर के
सब नियमों को तोड़कर
लाकर निज हिंसा यहां
मानव विजेता बना
और हम हार गये।
पहले विशेषता थी हममें,
जिससे आकर्षित हो
मानव भी आस का हमारे पास
किन्तु आज
रोग के कीटाणु दिये मानव ने
रोगी अब हो गया
हमारा यह प्यारा नगर।“
”चलो शीघ्र मैं भी
वहां आती हूँ
उचित उपाय
करना पड़ेगा मुझको।“
भ्रमरों में श्रेष्ठ
राष्ट्र कवि भ्रमराधिप ने
विदा किया भ्रमरों को
यह कह कर,
और श्री चमेली के
उपवन महल को
अविलम्ब चलने की
अपनी तैयारी आरम्भ की।
कवि कमजोरी की
अनुभूति हो रही थी,
श्री चमेली भी लज्जित थीं
अपने व्यवहार पर।
राष्ट्र कवि-जिनके
नियंत्रण में, जिनके निर्देशन से
पुष्पनगर का है
समाज सब चलता-
आयेंगे यहां तो
किस तरह मुंह अपना
उन्हें हम दिखायेंगे?-
यह सोचकर
दोनों हो रहे थे
व्यथा विचलित, कातर।
आये जब राष्ट्र कवि,
श्री चमेली देवी से बोले यों
‘देवि, इस पुष्पनगर में
नयी बात हुई
मोह का था
यहाँ कहीं नाम नहीं
तुमने सिखलाई हमें
एक नयी कामना
देवता को अर्पित हो
या गले का हार बने
किसी प्रेमी प्रेमिका का।
भली हो महान
या हो वेश्या अति पतिता
पुष्प नेनकनी किया
पक्षपात किसी का
कारण इसका था यह
उसमें नहीं थी पहले
कोई चाह और कोई वासना।
कवि से कर दोस्ती
अब तुम चाहती हो
गौरव, प्रतिष्ठा जो
अब तक मिली नहीं है तुमको
दूसरे पुष्पों से
जिन्हें कवियों ने
अधिक सराहा है,
तुम होड़ लेना चाहती हो,
उनको गिराना और
स्वयं आगे बढ़ाना
अब तुमको पसंद है।
लाभ नहीं होगा कुछ तुमको,
व्यक्तिगत रूप से
अपयश के बोझ से
तुम दब जाओगी।
सारे पुष्पनगर की
हानि आज
तुमने कर डाली है।
इतना कह कर
श्री चमेली देवी से
पुष्पनगर के
राष्ट्र कवि भ्रमराधिप ने
कविवर से यों कहा-
”मानवों के कवि।
यहाँ आये थे सीखने को
उलटे, सीख तुमने ही
हमको दे दी नयी।
इसमें यदि मानते हो गौरव
तो तुम सा महान व्यक्ति
यहाँ अन्य कोई नहीं।
किन्तु मैं समझता हूँ,
पुष्पनगर की
हस्ती को हर कर
तुमने भी बहुत कुछ खोया है,
अपनी ही शक्ति का
विनाश कर डाला है।
अपनी आधार शिला एक
तोड़ डाली है
व्यक्तिगत रूप से
हुए हो तुम दुर्बल
और कर बैठे शक्तिहीन
सारे मानव समाज को
प्रायश्चित होगा किस तरह
इस सर्वनाशी दोष का?
कविवर से उत्तर की आशा में
राष्ट्र कवि लेते से विराम
कुछ जान पड़े
इससे प्रभावित हो
कविवर ने यों कहा-
”राष्ट्र कवि महोदय!
अपराध मेरे हों क्षमा
अपना ही नाथ
मैंने किया नहीं,
मानव समाज को भी
भेज दिया रसातल;
मानव जहाँ कहीं भी
जायेगा त्रिलोक में,
अब विश्वास कोई
उसको करेगा नहीं,
मेरी बदनामी की
कहानी इस विश्व में
चन्द्रमा की कालिमा सी
होगी अब अक्षय।
जिन्दा ही आज मैं
मरे के समान हुआ
मुँ में लगा है वह कालिख
जो जीवन भर धो न कभी पाऊँगा,
प्रायश्चित कोई
यदि आप बतला दें मुझे
मुझको उबार लेंगे
आपका कृतज्ञ हूँगा
इसे सत्य मानिए।"
राष्ट्र कवि भ्रमराधिप बोले,
”शुभ लक्षण है
उदय हुआ है यदि
विचार प्रायश्चित का।
प्रायश्चित ही में
वह शक्ति है,
जो अवगुण को अलंकार में बदलकर
दिखा सके;
सच्चे मन से यदि
करोगे तुम प्रायश्चित
तो हुआ जो पतन
बनेगा वह उन्नति का कारण।
किन्तु अब कठिन
तपस्या तुम्हें करनी है;
तप ही में शक्ति वह
सारा विष पान कर
अमृत पिला सके।
तुम में यदि तप करने का
दृढ़ निश्चय हो
तो सुनो-
जिस अज्ञान से
तुम्हारी बुद्धि मारी गयी
पृथ्वी पर उसका इलाज है,
केवल चार तत्वों के
अंतस में बारम्बार डूबना ही।
पहले तुम जल तत्व स्वामी
वरुण के पास जाओ
कुछ शुद्धि देंगे वे,
किन्तु उतने में संतोष मत मानो।
बढ़े चलो आगे,
अग्नि देव पास, फिर
इसी तरह
मारुत के पास जाओ
और फिर लीन बनो
शून्य तत्व नभ में।
पृथ्वी तत्व की अशुद्धि
नष्ट तभी हो सकेगी।
उतना परिर्माजन ले
आओ पुष्पनगर में
और तब शुद्धि दृष्टि से
देखो हम सबको।
साहस यदि तुममें हो
करो यह प्रायश्चित
इसमें तुम्हारा ही नहीं है
कल्याण भरा
इसमें सारे विश्व का
हित निहित है।"
राष्ट्र कवि मौन हुए,
कवि ने की घोषणा-
पालन करूँगा
आदेश यह अक्षरशः
धोऊंगा कलंक निज
उज्ज्वल करूँगा मुँह
मानव समाज का
और यह पुष्पनगर,
जिसको क्षति मैंने पहुँचायी है,
-प्रण करता हूँ मैं-
यशस्वी बन जायेगा
सारे संसार में।"