सातवीं किरण / द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी
नव वर्ष नवीन विहान लिये
अवतरित हो रहा है जग में।
आलोक स्वर्ण-सा बिखरेगा
मानव की उन्नति के मग में॥
छूकर नव दिनकर की किरणें
विस्फुट होंगी समुनावलियाँ
विकसेंगी जगती के उर की
युग-युग से मुरझाई कलियाँ॥
खिलखिला उठेंगी हर्षित हो
पाकर वे नूतन रश्मि-दान।
क्यों नहीं! अरे यह उनका ही
होगा सुन्दर स्वर्णिम विहान॥
वे हँस-हँस कर अपने जीवन
का अनुपम खेल दिखायेंगी।
हँसते-हँसते मुरझा जाना
जगती को वह सिखलायेंगी॥
निशि की अँधियारी से ऊबे
सिमटे बैठे निज नीड़ों में।
पंछी उड़-उड़ कर बैठेंगे
इन पेड़ों से उन पेड़ों में॥
उनके उड़ने में फुँदक एक
होगी विशेष स्वच्छन्द-सुखद।
हिंसक बहेलिये की उनको
मन में शंका होगी न दुखद॥
वे भर देंगे कोमल मिठास
जग में अपने मधु कलरव से।
चहचहा उठेगा विश्व अखिल
उनके मधुमय स्वर-वैभव से॥
मलयानिल अपनी मस्ती में
शीतलता का मृदु भार लिये।
घूमेगा दिशि-दिशि में अपने
स्पर्शों का मीठा प्यार लिये॥
होगा प्रशान्त-स्वच्छन्द और
शीतल जग का कोना-कोना।
ऊषा नव रवि का थाल लिये
बरसायेगी भू पर सोना॥
धन-धान्य पूर्ण होगी वसुधा
बन्दी मानव होगा स्वतंत्र।
बर्बरता औ’ नृशंसता का
फिर चल न सकेगा क्रूर मंत्र॥
तिमिरावृत काली रजनी का
निश्चय होगा अविलम्ब अन्त॥
मानवता की स्वर्णिम आभा
से रंजित होगा दिक्-दिगन्त॥
प्राची का तेजस्वी दिनकर
चढ़कर नभ के अरुणिम विमान
पर; भर देगा भूमण्डल में
नव-नव सुन्दर स्वर्णिम विहान॥
तब एकबार इस अखिल विश्व
में होगी फिर भीषण हलचल।
पौरुष प्रसुप्त मानव का उठ
जागृत होगा कर कोलाहल॥
उस क्षण होगा युग-युग पीड़ित
इस वसुधा का भाग्योत्कर्ष।
जागृति-स्वतन्त्रता-विश्व-प्रेम
ला रहा हमारा नया वर्ष॥