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साथियों से मिलाप / प्रेम प्रगास / धरनीदास

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चौपाई:-

उतरि कुंअर तब बाहर आऊ। परसो सब सन्तन के पाऊ॥
संगिन देख कुंअर जब आवा। तृषित प्राणि जनु अमृत पावा॥
उठि उठि सब जन अंकन सारा। कुशल परस्पर वचन उचारा॥
होते क्षीण सकल तपसी जन। भये प्रसन्न सबहि ताही दिन॥
प्रेम विलीन भये सब कोई। देह प्राणकी सुधि वुधि खोई॥

विश्राम:-

तन की तपति बुझावनी, मन मो आनंद चाव।
रुक्मिणि कृष्ण दरश जून, सन्दीपन सुत पाव॥249॥

चौपाई:-

वोहित भार उतर सब झारी। हय गज सम्पति राजकुमारी॥
पुनि तपसी जन भद्र करावा। सुधा सुगंध सबहि नहवावा॥
उत्तम वस्त्र दियो परिधाना। अतर सुगंध भलो मनमाना॥
गज मुक्तनन हार पहिराऊ। मेवा पान कपूर खवाऊ॥

विश्राम:-

तिन सब सों विनती करी, कहि मृदु वचन सुनाव।
कृपाकत हमपे रहो, सतत करो सतभाव॥250॥

चौपाई:-

दिन दुइ चार रहो वहि ठाई। समाचार कहि सकल सुनाई॥
जत लछिमी लैआव कुमारा। सब संगिन सौंपो तेहि वारा॥
तुम कैह दीन्हा श्रीभगवाना। करहु यतन जैसे मनमाना॥
सुनहु वंधु तुम ध्यान दृढ़ाई। मोहि लियायउ मारग साईं॥
जन्म सुफल जैहि लेखे आओ। सुयश तुम्हारा कहां लौं गाओ॥

विश्राम:-

अद्भुत अरथ दरब सबै, दीन्हो श्री भगवान।
कटक करे दल वादलो, अन्त आव वरगान॥251॥

चौपाई:-

जेते लोग आव सेवकाई। दो गुन द्रव्य दिा वहि ठांई॥
मैना मिलि शुभ शगुन विचारा। लक्ष्मी सकल लदायउ भारा॥
संगिन सकल कियो असवारी। रोपि सुखासन दुवो कुमारी॥
बहुत द्रव्य कृष्णार्पन कीन्हा। पाछे कुंअर पन्थ पग दीन्हा॥
बाजन बाज्यो हन्यो निशाना। चहुं दिशि लोग सकल अकुलाना॥

विश्राम:-

प्रात चलहिं संध्या वसहिं, सब जन पुलकित अंग।
नित आवहिं वरगान जत, उठ मन मांह उमंग॥252॥