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सादी के गुलाब / मर्सलीन देबोरद-वालमोर / मदन पाल सिंह

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सुबह, मैं चाहती थी गुलाब तुम्हें अर्पित करना
मैंने गुलाब चुने, शुरु किया कमरबन्द में रखना,
गाँठें बहुत तंग थीं, कमरबन्द सह नहीं पाया।

गाँठें चटक गईं, गुलाब बिखर गए
हवा में बहकर वे सागर की ओर चले,
वे सागर में मिले, नहीं एक वापस आया।

लहरें दिखती लाल, जैसे लपटें दहकें
इस रात मेरे वस्त्र भी ख़ुशबू से महके,
मुझ पर लो श्वास, ख़ुशबू का नशा छाया।
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ईरान के महाकवि शेख सादी के लिये प्रयुक्त। मर्सलीन का शेख सादी की तरह रूहानी प्रेम के प्रति विशेष झुकाव था।

मूल फ़्रांसीसी से अनुवाद : मदन पाल सिंह

शब्दार्थ
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