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साधना-गीत / रामगोपाल 'रुद्र'

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तुम साधना बनो, अनंत साधना बनो।

मत सिद्धि बनो, देव! मुझे यह न कामना,
तुम साध्य ही रहो, बनो न तृप्ति-यातना;
आराध्य बनो, पर न फलाराधना बनो।

तुम छंदहीन हो, अमंद छंद में बहो,
तुम काव्य बनो प्राण के, उमंग में रहो;
तुम राग बनो, पर विराग-तार से छनो।

तुम तान-तान के वितान सर्जना करो,
उन्मुक्त अन्त-अन्त में अनंत स्वर भरो;
पर दर्प-दुर्ग पर सुरेन्द्र-दण्ड बन तनो।

तुम हे उदार! ताप बनो, ताप बने रहो,
उर-वर्ति रहो, चिर-सनेह में सने रहो;
जलते रहो, पतंग-पात मत गिनो-गनो।