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साध की? / चन्द्रनाथ मिश्र ‘अमर’
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अपन अछि साध की?
के नहि-जनइछ मानव-मन होइछ निश्चय निर्बाध ई।
विषयक मृगतृष्णामे भटकल सदा मानवक अन्तर,
लोभक पंक फँसल पद करइछ छूटक यत्न निरन्तर
किन्तु भेल आन्हर ताहूपर मदक समुद्र अगाध ई
अपन अछि साधकी।
अपन सुखक आगाँ नहि अनकर दुखक पता क्यो पाबय,
एक कनैछ अनाथ, किन्तु क्यो उमगल मनसँ गाबय
मनुज विहग खोंतामे सुटकल, घूमय, द्रोहक व्याघ ई।
अपन अछि साध की।
व्याज समाजक, किन्तु बलन सौंसे राजक अधिकारी,
देखि रहल अछि गिद्ध-दृष्टि सँ ई न्यायक व्यापारी,
आइ मनुष्यक संग मनुष्ये करय घृणित अपराध ई।
अपन अछि साध की?