भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

साबुन / संजय शाण्डिल्य

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

साबुन
विविध रंगों-गन्धों में उपलब्ध
एक सामाजिक वस्तु है

आप ज्यों ही फाड़ते हैं रैपर
किसी जिन्न की तरह
यह पूछ बैठता है हुक़्म
यह वर्षों से पूछता आया है हुक़्म
कभी सुनी है आपने इसकी आवाज़
आप हमेशा हड़बड़ी में होते हैं
इसलिए सँपेरे की तरह दबोच लेते हैं इसे
यह दुबक जाता है मुट्ठी में
घोंघा बनकर
इसे घुमा-घुमाकर जब
माँज रहे होते हैं देह
चुपचाप आँखें मिचमिचाते
यह देख रहा होता है आपका सब कुछ
फिर रहा होता है
नो इण्ट्री जोंस में भी बेबस

साबुन ने कभी नहीं मानी कोई व्यवस्था
जितना यह निखार सकता है आपको
उतना ही
शादी में श्राद्ध के मन्त्र बाँचते किसी पण्डित को
या हफ़्तावार नहाते किसी मुल्ले को
कोई चोर भी स्मार्ट हो सकता है इससे
इससे धुल सकते हैं किसी बलात्कारी के
दाग़दार कपड़े भी
कोई वेश्या भी हो सकती है चकाचक

घिसकर अपने आख़िरी दिनों में भी
यह तैयार रहता है
बाथरूम के किसी ताख़े पर
या आँगन में मोरी के पास
आप उठते हैं
और उठाकर
गुनगुनाते हुए माँज लेते हैं हाथ
इसके माथे पर शिकन तक नहीं आती

किसी दिन इसी तरह
यदि माँजते हुए हाथ
यह छिटककर गिर पड़ता है कचरे की दुनिया में
तब आप कितना झल्ला उठते हैं इस पर
और
कितनी कातर दृष्टि से
यह निहारता रह जाता है आपका चेहरा ।