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सामाजिक भाषा में रोना / महेश वर्मा
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और जबकि किसी को बहला नहीं पाई है मेरी भाषा
एक शोकगीत लिखना चाहता था विदा की भाषा में और देखो
कैसे वह रस्सियों के पुल में बदल गया
दिशाज्ञान नहीं है बचपन से
सूर्य न हो आकाश में
तो रूठकर दूर जाते हुए अक्सर
घर लौट आता हूँ अपना उपहास बनाने
कहाँ जाऊँगा तुम्हें तो मालूम हैं मेरे सारे जतन
इस गर्वीली मुद्रा के भीतर एक निरुपाय पशु हूँ
वधस्थल को ले जाया जाता हुआ
मुट्ठी भर धूल से अधिक नहीं है मेरे
आकाश का विस्तार -- तुम्हें मालूम है ना ?
किसे मै चाँद कहता हूँ और किसको बारिश
फूलों से भरी तुम्हारी पृथ्वी के सामने क्या है मेरा छोटा सा दुख ?
पहले सीख लूँ एक सामाजिक भाषा में रोना
फिर तुम्हारी बात लिखूँगा