भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

साम्य / ककबा करैए प्रेम / निशाकर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज


हम नहि छी
भोर
हम नहि छी
साँझ
हम दुपहर छी।

हम नहि छी
छाउर
हम नहि छी
धुआँ
हम आगि छी।

हम नहि छी
बरफ
हम नहि
भाफ
हम पानि छी।

हम जिनगीक तारकें
नहि कसैत छी बेसी
आ ने ढ़ील करैत छी बेसी
साम्य रखबाक करैत छी प्रयास।