भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
साया दरक रहा है / प्रेम कुमार "सागर"
Kavita Kosh से
आशियाँ जो खाक हो गया शमां जलाने में
कहाँ हम ठौर पाएँगे इस बेदर्द जमाने में |
नैया तो डूब जाएगी मझधार में फँसकर
पतवार गर' टूटा लहर को आजमाने में |
माली के बाग़ में बहार महफ़िल सजे कैसे
गुल ही उजड़ गया है गुलशन सजाने में |
ईमारत सी बन रही है अरमानों के खाक पर
एक साया दरक रहा है इसको बनाने में |
कोई बन गया है देखो जख्मों का जखीरा
काँटों के बीच जा बसा फूल को भुलाने में |
'सागर' तू कैद कर ले हर जाता हुआ लम्हा
जन्मों लगेंगे फिर तुझे इसको भुलाने में ||