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सार्वजनिक नल / हरीशचन्द्र पाण्डे
Kavita Kosh से
इस नल में
घण्टों से यूँ ही पानी बह रहा है
बहाव की एक ही लय है एक ही ध्वनि
और सततता भी ऐसी कि
ध्वनि एक धुन हो गई है
बरबादी का भी अपना एक संगीत हुआ करता है
ढीली पेंचों के अपने-अपने रिसाव हैं
अधिक कसाव से फ़ेल हो गई चूडिय़ों के अपने
सुबह-शाम के बहाव तो चिडिय़ों की चहचहाहट में डूब जाते हैं
पर रात की टपकन तक सुनाई पड़ती है
पहले मेरी नींद में सूराख कर देती थी यह टपकन
अब यही मेरी थपकी बन गई है
मैं अब इस टपकन के साये में सोने लगा हूँ
हाल अब यह है
जैसे ही बन्द होती है टपकन
मेरी नींद खुल जाती है...