दादुर झींगुर गीत सुनाते,
नूपुर है गुमसुम ।
दिन फुहार के मन को भाते,
सावन आना तुम ।
भीग गयी है मन की माटी
अंकुर फूटे हैं ।
जाने को उस पार लहर के
लंगर छूटे हैं ।
बीत रहे अब दिन अषाढ़ के
मत इतराना तुम ।
दिन फुहार के मन को भाते
सावन आना तुम ।
नजरों में इठलाती बूँदें
रुनझुन रचती हैं ।
रोम रोम में छुअन रेशमी
सिहरन भरती हैं ।
पुरवाई तो पेंग भरेगी
कजरी गाना तुम ।
दिन फुहार के मन को भाते
सावन आना तुम ।
धानी चूनर ओढ़ धरित्री
स्वप्न सजाएगी ।
नदिया लेकर थाल शगुन की
जल छलकाएगी ।
एक हरेला पर्व मना लें,
ऐसे आना तुम ।
दिन फुहार के मन को भाते
सावन आना तुम ।