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सावन उतरे / विजेन्द्र
Kavita Kosh से
सावन उतरे, भादों आए
सूखे जनपद क्या क्या लाए
खाँसी लाए
माछर लाए
जूड़ी ताप तिजारी लाए
खिले फूल चम्पा के
कुल्ले फूटे संका के
झिर- मिर -झिर- मिर पड़ी फुहारें
साँड खड़ा दलकारे ।
आव न देखे
ताव न देखे
कैसी कुगत हुई मिनख की
अपना आपा ख़ुद ही खोबै ।
पंजा अपना लड़ा रहा हूँ
नहीं जगह देते अभिजन तो
गाड़ा अपना अड़ा रहा हूँ
मुझ को भूख ताप लाए हो
धन्ना को सुख ससाधन लाए हो ।
देख रहा हूँ
तुम आए हो
भरे पेट को
तुम भाये हो ।
जिसने कोदी नींव कमर तक
उसको हर कम्प अलग लाए हो ।
जो भी मिलता फटकन- छटकन
खा लेता हूँ अटकन-बटकन
अपनी आँते सड़ा रहा हूँ
लरने को नित तड़ा रहा हूँ ।