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सावन मेघ / अज्ञेय

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घिर गया नभ, उमड़ आए मेघ काले,
भूमि के कम्पित उरोजों पर झुका-सा, विशद, श्वासाहत, चिरातुर —
छा गया इन्द्र का नील वक्ष-वज्र-सा, यदि तड़ित से झूलता हुआ-सा।
आह, मेरा श्वास है उत्तप्त —
धमनियों में उमड़ आई है लहू की धार —
प्यार है अभिशप्त : तुम कहाँ हो नारि?
मेघ व्याकुल गगन को मैं देखता था, बन विरह के लक्षणों की मूर्ति —
सूक्ति की फिर नायिकाएँ, शास्त्रसंगत प्रेम क्रीड़ाएँ,
घुमड़ती थीं बादलों में आर्द्र, कच्ची वासना के धूम-सी।
जबकि सहसा तड़ित के आघात से घिरकर
फूट निकला स्वर्ग का आलोक। बाह्य देखा :
स्नेह से आलिप्त, बीज के भवितव्य से उत्फुल्ल,
बद्ध-वासना के पंक-सी फैली हुई थी
धारयित्री-सत्य-सी निर्लज्ज, नंगी, औ' समर्पित।