साहित्य तन्त्र है ये इस समय का / इधर कई दिनों से / अनिल पाण्डेय
1.
'अंधेरे में' रहते कवि ने
जनता के लिए शब्द खोजे
निःशब्द रह गयी दुनिया
आसमान खुश हो गया
जनता कर उठी त्राहिमाम त्राहिमाम
कवि चला गया
'दिमागी गुहान्धकार के ओरांग उटाँग' में
लटका गया आलोचक को
त्रिशंकु बन झूलता रहा पाठक
आज तक नहीं पहुंच सका
कवि ने जहाँ पहुंचाना चाहा
कुछ निकल आए बन फरिश्ते
कवि के सन्देशवाहक बन
बता दिया जनता को
चाँद का मुंह टेढ़ा है
'कदम कदम पर चौराहे' के मिलने
सब पर से गुजरने की मंशा ने
नहीं छोड़ा कहीं का भी उन्हें
वे आज तक भटक रहे हैं 'अँधेरे में'
दलाल फरिश्तों ने राग अलापा
कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती
जनता कोशिश में लगी है
और वे संस्थाओं अकादमियों के माल गटक रहे हैं
आलोचक क्रांति के नाम पर
जोर जोर से हाथ झटक रहे हैं
और पाठक 'अँधेरे में' आज भी भटक रहे हैं
2.
मुक्तिबोध
अँधेरे में छटपटाते रहे
उम्र भर
आदमी बनने की कोशिश में
आदमीयत की नब्ज़
टटोलते रहे
चले गए एक दिन
उजाले की ही तलाश में
न आदमी मिला कोई
ठीक का
न उजाले की रोशनी
दलालों की दलबन्दी रंग लाई जरूर
नहीं कर सके जो कुछ
ईश्वर बनाकर बैठा दिये
साहित्य-मंदिर में तुम्हें गर्व से अभिभूत हो
पता है मुक्तिबोध
अब छटपटाहट तुम्हारी और बढ़ गयी है
तुम्हारी स्थापनाओं के दम पर
मंडी दलालों की सज गयी है और
मंदिर की ड्योढ़ी पर
एकाधिकार है उनका ही
पढ़ नहीं सकता तुम्हें अब कोई
तुम्हारी प्रशंसा में
नमा कर शीश मंत्र पढ़ना ही कर्तव्य बचा है
तुम असहमत रहे लोगों से
जिंदा रहे
यह तुम्हारे समय का लोकतंत्र था
अभिव्यक्ति के खतरे उठाने का
तोड़ने को मठ और गढ़ सब
पूरा अधिकार था तुम्हारे पास
तुमसे असहमत होने का अधिकार
नहीं किसी के पास
असहमत होगा जो
मार दिया जाएगा दलाल चौकड़ी द्वारा
प्रश्न करेगा जो नेस्तनाबूत कर दिया जाएगा
बीच चौराहे पर
यह हमारे समय का साहित्य-तंत्र है
यहां तर्क कम
अखाड़ेबाजी अधिक है
रखवाला ही यहाँ सम्भावना का बधिक है
देखो कभी आकर
उजाले में तुम चले गए अँधेरे से लड़ते लड़ते
उजाले वाले अँधेरे में छटपटा रहे हैं
जिन्हें नहीं समझ आए तुम कभी
तुम्हारे नाम का झंडा वे भी लहरा रहे हैं
जो मुक्तिबोध मुक्तिबोध चिल्लाएगा
'युवा महोत्सव' में शामिल किया जाएगा
विद्वान कहलाएगा मनीषी समझा जाएगा
कवि माना जाएगा
नहीं कहेगा जो
अनपढ़ गंवार कहलाएगा
गरियाया जाएगा
धकियाया जाएगा
घुंचियाय जाएगा
यह तुम्हारे समय का लोकतंत्र नहीं मुक्तिबोध
हमारे समय का साहित्य-तन्त्र है
3.
कवि एक सच बोलता है
फटकार देता है
दूसरा कवि उसी समय
सच बोलने का नहीं समय यह
हो सके तो झूठ का व्यापार कर
लोग समझें कि आक्रोश है इधर बहुत
जितना कर सक गलत व्यवहार कर
कौन जानता है खड़ा होना सच के साथ
बनाए रखने के लिए खुद को
झूठ का प्रचार कर
यह कवि की नहीं
इधर के समय की सच्चाई है
याथार्थ की न चिंता न झूठ का मलाल है
सच न ही कहो तो अच्छा है
बने रहोगे, वैचारिकता का सवाल है
कवि बोलता नहीं कुछ
क्षमा माँगता है
इस तरह झूठ-बाज़ार में
देता है प्रमाण शामिल रहने का
गढ़ता है नया मुहावरा
कहलाता है समकालीन
4.
अब वे मानने लगे हैं
कविता भले न हो कहीं
कवि बड़ी मुश्किल से कोई बनता है
यह कतई जायज नहीं
इधर उधर से झटके मान-सम्मान की
हंसी उड़ाए कोई
इधर लंबे दिनों से सेवारत हैं वे
पुरस्कार प्रदाताओं की सेवा में व्यस्त हैं
कार्यक्रमों में पा जाते हैं भरपेट भोजन
जो नहीं आता उनकी तरह लाइन में लगने
उसको गंवार मूर्ख और जाहिल समझते हैं
मौका बेमौका उन पर गरजते रहते हैं
यह भी नहीं पता है उन्हें शायद
कवि कहलाने का शौक अन्य को नहीं है
धर्म है उनका चारणगान लेकिन
उनके जैसा कोई चारण नहीं है
उम्र के अंतिम पड़ाव पर
वे हो जाना चाहते हैं स्थापित
यहां उनके जैसा कोई विस्थापित नहीं है
5.
कवि
जिस समय तुम
रहते हो कवि
करते हो बात जन जीवन की
अच्छे लगते हो
जी करता है
लगा लूं हृदय से
हृदय में बसाकर
जैसे ही तुम
बन जाते हो नेता
करने लगते हो नारेबाजी
बांटने लगते हो हिंसा
हो जाते हो किसी दल के अभिनेता
जी करता है
लगाऊँ गाल पर दो-चार
बीच सड़क पर दौड़ाकर
6.
सच को ढूंढो मत
हो सके तो झूठ के सहारे ही
आदत डालो चलने की
पहुँच जाओगे किसी तरह मंजिल तक
गिरते पड़ते ही सही
दोस्त नहीं बोलते सच
कि टूट जाएगी दोस्ती अचानक
परिवार में नहीं बोलते सच कि
बिखर जाएंगे एक-एक करके सभी
जग हंसाई होगी अलग से
गाँव में नहीं बोला जाता है सच
बदनामी होगी सबकी
देश-दुनिया में लोग क्या सोचेंगे भला
महानगर शुरू से अडिग है
सच कभी न बोलने की जिद पर
सरकारें कभी नहीं बोलेंगी सच
फिर आना है उन्हें
लोक-सत्ता में रहना है स्थाई
सच फिर आने का नाम नहीं, जो मिला है
गंवाने का परिणाम है जरूर
क्यों बोले सच कवि
प्रशंसा के इस दौर में कबीर बन क्या पा जाएगा वह
आलोचक का काम कुनबे को बचाकर रखना है
घेरा जाएगा चारणों के इशारे पर चारों तरफ से
मृतक घोषित कर भगा दिया जाएगा एक दिन परिवेश से
7.
लोग कहते हैं वरिष्ठ हैं वे
छोड़ दिए हैं संवाद करना
गाली शास्त्र रखते हैं अब सिरहाने
लांघ चुके हैं असभ्यता के सभी पायदान
खुद हैं जंगली
जानवर दूसरों को समझते हैं
साहित्यिक हैं वे
बताते हैं सबको अपनी उपलब्धि
उम्र बीत गयी है लिखते लिखते
जितने की हुई नहीं आधी आबादी
कर चुके हैं उतने आन्दोलन का बीजारोपण
हम जैसे तो जन्म ही नहीं लिए थे इस धरा-धाम पर
हम जैसे नहीं मानते उन्हें
सुना है वाम दर्शन के चितेरे बन
संस्कारों से व्यभिचार करते हैं इन दिनों
गाली का नायाब शेर कभी उन्होंने ही लिखा था
अकादमी वाकादामी में उनके नाम का हो-हल्ला भी मचा था
अब उनके समर्थक उसी का व्यापार करते हैं
वे सभ्य हैं इतना कि
समाज की माँ-बहन को जेब में लेकर चलते हैं
मंच से स्त्री-मुक्ति का पाठ करते हैं
फ़िल्मी गाना गाते हैं ऐसा कि पत्थर भी शरमा जाए
वे नहीं शरमाते क्योंकि वाम का झंडा साथ रखते हैं
कोई प्रतिवाद करे उसे शोषक औब्राह्मणवाद कहते हैं
कौन बताए वरिष्ठ को
उनके वाद से चलता नहीं लोक
अपनी रीतियों-नीतियों का स्वयं होता है निर्धारक
नहीं मानते उनके जैसे ठरकी
लोकवासी विधिवत उन्हें सुधार सकते हैं
वे वरिष्ठ जो घूमते हैं गलियों में साहित्य के नाम पर
हमारे यहाँ उन्हें छुट्टा सांड कहते हैं ||
8.
अब सच बोलने का अधिकार वही रखना चाहते हैं
जो झूठ के प्रचारक और हिस्सेदार हैं पूरी तरह से
अब वे ही देश को अपने हाथों सँवारना चाहते हैं
परिवेश में पड़े खर पतवार को नहीं उठाते हैं जो
वे ही मढ़ते हैं दोष निकम्मे हो जाने का सरकार पर
घर के बगल खुदे गड्ढे को नहीं भर पाए जो
वे देश के बिक जाने की बात कर रहे हैं
झूठे इरादे को सच संग बलात् रख रहे हैं
अभी तक कुछ भी न कर सके जन हित जो
वे भी कुछ करने की सौगात रख रहे हैं
देखिए इनका आखिर कैसी बात कर रहे हैं
उनसे सावधान रहो, प्रपंची हैं वे
करते कुछ नहीं सिर्फ चिल्लाते हैं
किसी के किये पर आरोप लगाते हैं
खुद मौका मिलने पर ज़मीर बेच खाते हैं
ये न लजाते हैं न शर्माते हैं, आ जाते हैं लड़ने
तुम न चाहो फिर भी वे युद्ध हेतु ललकारते हैं
सम्हलो इनसे इनके पास कुछ भी नहीं है इनका
कि डरें ये कुछ खोने से, दूसरे का ही ओढ़ते हैं और
दूसरे का बिछाते हैं, ये विचार शून्य हैं, दूसरों के शब्द से
दुकान अपनी चलाते हैं लेकिन नहीं कह सकते क़ुछ इन्हें
स्वयं करते हैं उद्दंडता, नासमझ उल्टे ये आपको ही बताते हैं।
9.
वे जो कथाकार हैं
पूछो उनसे
हैं गालियों के वितान क्यों
खड़े कर रहे
जो दूर हैं उनके मयखाने से
वे नहीं आएँगे
आशियाना ढूंढने कभी यहां
इनके पात्रों की विलासिता को
ढोएंगे इनके वंशज ही
उनसे पूछो कपड़े उतार कर
नाचने की प्रथा कहाँ से लाये ये
क्यों भविष्य को अपने
बाज़ार में बेच रहे
ये समाज कभी तो नहीं था
आततायी इतना कि
पति-पत्नि-प्रेमिका
एक साथ हमबिस्तर रहें
सिखाते हैं कैसे वे बिस्तर के कहकहे
कहिए उनसे कि
पुरस्कार के लालच में
विलासी समाज को न बनाएं वे
झूठी प्रशंसा दिन बहुत नहीं रहती जीवित
स्वभाव तो प्राकृतिक ही होता है।।
10.
जब हजारों लोग लिख पढ़ रहे थे
तब वह सेवा कर रहा था
अपने मालिक की
झाड़ू पोंछा लगा रहा था
जब लोग पढ़ लिख कर कहने के काबिल हुए
वह पा चुका था ज्ञानपीठ पुरस्कार
पुरस्कार मिला किसे
पढ़े-लिखे योग्य को तो नहीं मिला
मिला उसे जो अपने मालिक को नहलाने-धुलाने
चड्ढी तक साफ़ करने के लिए
तत्पर रहता था, जो हर समय
करता था जी हुजूरी पुरस्कार दाता की
सेवा में हिलाया गया सिर
ज्यादा दिन तक नहीं बना रह सकता ऊँचा
जो हर समय नत रहना सीखे हैं
कहने की हिम्मत नहीं जुटा पाते हैं कभी
अब दुकान रख लिया है उन्होंने आख़िरकार
ऐरा गैरा को बनाने का साहित्यकार
प्रमाणित यह हुआ अंत में कि
सेवा के लिए नहीं मिला था पुरस्कार
ठगने के लिए था पूरा जोर-जुगाड़
उसे विश्वास है
वह सरस्वती का उपासक है
दुनिया जानती है
वह एक अदना सा प्रकाशक है