भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
सिंझ्या: एक चितराम / सांवर दइया
Kavita Kosh से
आभै में पसरै :
कीं ललासी
कीं पीळास
धोरां बैठ्यो म्हैं देखूं
जड़ां सूं जावतो सूरज
मन चितेरो
माण्डै चितराम
चन्नणिया साड़ी बांध
आरती री थाळी लियां ऊभी
मुळकती सुहागण रो !