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सिकुड़ गए दिन / कुमार रवींद्र
Kavita Kosh से
ठंडक से
सिकुड़ गए दिन
हवा हुई शरारती - चुभो रही पिन
रंग सभी धूप के
हो गए धुआँ
मन के फैलाव सभी
हो गये कुआँ
कितनी हैं यात्राएँ - साँस रही गिन
सूनी पगडंडी पर
भाग रहे पाँव
क्षितिजों के पार बसे
सूरज के गाँव
आँखों में - सन्नाटों के हैं पल-छिन
बाँह में जमाव-बिंदु
पलकों में बर्फ
उँगलियाँ हैं बाँच रहीं
काँटों के हर्फ
धुंधों के खेत खड़ीं - किरणें कमसिन