भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

सिकुड़ गए दिन / कुमार रवींद्र

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

ठंडक से
सिकुड़ गए दिन
हवा हुई शरारती - चुभो रही पिन

रंग सभी धूप के
हो गए धुआँ
मन के फैलाव सभी
हो गये कुआँ

कितनी हैं यात्राएँ - साँस रही गिन
          

सूनी पगडंडी पर
भाग रहे पाँव
क्षितिजों के पार बसे
सूरज के गाँव

आँखों में - सन्नाटों के हैं पल-छिन
     

बाँह में जमाव-बिंदु
पलकों में बर्फ
उँगलियाँ हैं बाँच रहीं
काँटों के हर्फ

धुंधों के खेत खड़ीं - किरणें कमसिन