भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
सिखाये जो सबक़ माँ ने मैं वो हर पल निभाती हूँ / सिया सचदेव
Kavita Kosh से
सिखाये जो सबक़ माँ ने मैं वो हर पल निभाती हूँ
मुसीबत लाख आयें सब्र इस दिल को सिखाती हूँ
सहे हैं दुःख तो मैंने भी मगर ज़ाहिर न कर पाई
मुझे देखो मैं हर लम्हा ख़ुशी से मुस्कुराती हूँ
अँधेरी रात गर आई, तो उजला दिन भी आएगा
कभी तो दिन फिरेंगे खुद को ये सपने दिखाती हूँ
जो अच्छा हैं भला उसका बुरा हैं तो भला उसका
मेरी फितरत में है शामिल गले सबको लगाती हूँ
ज़माने की दलीलों को मैं हस कर टाल देती हूँ
मैं खुश हूँ देख लो कितना सभी को यूं जताती हूँ
सिया उम्मीद गैरों से न करना, टूट जायेगी
भरोसा रख खुदा पर बस यहीं सबको बताती हूँ