सिगरेट / सुकान्त भट्टाचार्य
मै हूँ सिगरेट
पर तुम लोग मुझे जीने क्यों नहीं देते ?
हमें क्यूँ जलाकर नि:शेष करते हो ?
क्यूँ इतनी अल्प आयु है हमारी ?
मानवता की क्या दुहाई तुम दोगे ?
हम लोगों की क़ीमत बहुत ही कम है इस पृथ्वी पर ।
तभी तो तुम लोग हमारा शोषण कर पाते हो ?
विलासिता की सामग्री समझ जलाकर ख़त्म कर देते हो ?
तुम लोगों के ही शोषण के खिचांव से हम राख होते हैं :
तुम लोग निविड़ रहो आराम के उत्ताप से ।
तुम लोगों का आराम : हमारी मृत्यु !
इस तरह चलेगा कितने काल तक ?
और कितने काल तक हम नि:शब्द आवाज़ देकर बुलाएँ
आयु–हरण कारी तिल–तिल अपघात को ?
दिन और रात्रि —– रात्रि और दिन :
तुम हमारा शोषण कर रहे हो हर पल —
हमें विश्राम नहीं पलभर, मज़दूरी नहीं —
नहीं जरा सा भी आराम ।
इसलिए, और नहीं;
और अब नहीं रहेंगे बन्दी बन
डिब्बों और पैकेटों में
उँगलियों में और जेबों में;
सोने से मढ़े सिगरेट केसों में हमारी साँसें रुद्ध नहीं होंगी अब
हम निकल पड़ेंगे,
सभी एक जुट हो, एकत्र हो —–
उसके बाद हमारे असतर्क समय में
ज्वलंत होकर छिटक पड़ेंगे तुम लोगों के हाथों से
बिस्तरों पर या कपड़ों पर,
सारा घर जलाकर उसके भीतर मार देंगे तुम्हें,
जिस तरह तुम लोगों ने हमें जलाकर मारा है हमें इतने काल से ।
मूल बंगला से अनुवाद : मीता दास