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सितम ढा रहे हैं सवेरे-सवेरे / डी. एम. मिश्र
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सितम ढा रहे हैं सवेरे-सवेरे
कहाँ जा रहे हैं सवेरे-सवेरे
झुकाये हैं नज़रें, छुपायें हैं मुखड़ा
क्यों शरमा रहे हैं सवेरे-सवेरे
कि जैसे किसी ने पकड़ ली हो चोरी
वो घबरा रहे हैं सवेरे-सवेरे
निकलते नहीं थे जो पर्दे से बाहर
नज़र आ रहे हैं सवेरे-सवेरे
रूखे गुंचा ओ गुल पे शबनम के दाने
पिघल जा रहे हैं सवेरे-सवेरे
सवेरा हुआ प्यास फिर जग गयी है
वो तरसा रहे हैं सवेरे-सवेरे
कभी जो गये ही नहीं एक पल को
वही आ रहे हैं सवेरे-सवेरे