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सिन्दूरी क्षण / शिवबहादुर सिंह भदौरिया

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आखों के लहरीले क्षण
बाँधों आँचल से।

पपिहे का स्वर सबके हृदय को टटोल गया,
काँप गई डाल-डाल पात-पात डोल गया;
अनछुई छुवन देकर भाग गई पुरवाई,
चम्पे की नरम डाल बार-बार लहराई;
मन के संगीत भरे क्षण बाँधो-
पायल से।

साँसों के तल छूती बजती जो शहनाई,
परिचित छाया-आकृति आँगन तक उड़ आई;
छरहरा कनैर मौज पाकर हिलता जाये,
जैसे लचका खाकर डोला चलता जाये;
अर्पण के सिन्दूरी क्षण बाँधो-
काजल से।

मैं ही दर्शक भी और एक बड़ा मेला हूँ,
बोलती हुई यादों बीच मैं अकेला हूँ;
तन जलता मन जलता, जलता सारा घर है,
दूरी का सूरज तो आपे से बाहर है;
ताप भरे प्राणों के क्षण बाँधों-
बादल से।