सिपाही / विनोद दास
शायद ही कोई इनसे ख़ुश हो
ख़ुद इनकी अपनी आत्मा भी नहीं
घर में पत्नी नाख़ुश
और बाहर पंसारी
जो उनकी बीवी को उधार देते-देते
आ गया है आजिज़
सबको इनसे शिकायत है
किसी को कम
किसी को ज़्यादा
इन्हें देखकर
वे भी बना लेते हैं अपना विकृत चेहरा
जिनका कभी इनसे साबका नहीं पड़ा
और वे भी
जिनकी सन्तानों को इन्होंने फिरौतीबाज़ों से बचाया
संसार की कोई भी राजसत्ता
इनकी भुजाओं के बिना नहीं चलती
चाहे बीते समय की राजशाही हो
या आज का कथित लोकतंत्र
इनका इतिहास
दासता का आख्यान है
और वर्तमान भी कहाँ कुछ बदला है
ये हिंसा के मज़दूर हैं
महँगाई के विरोध में शांतिपूर्ण रैली हो
जँगल-ज़मीन बचाने की मुहिम हो
या रोज़ी-रोटी के लिए धरना
अफसर को मुआवज़े की अर्जी देनी हो
या अपने हक़ के लिए सड़क पर निकालना हो जुलूस
आँखों पर बान्धे हुए अनुशासन की पट्टी
वे दीवार की तरह हर ज़गह रहते हैं मौजूद
इनके पास इतना भी नहीं होता अवकाश
कि धो सकें बू मारती अपनी पीली बनियाइन
सूराखों भरी जुर्राबें
हुक्म पाते ही हड़बड़ी में
पहन लेते हैं चारख़ाने वाली गीली जांघिया
कसते हैं चमड़े की बेल्ट
पहुँच जाते हैं वहाँ
दुर्भाग्य से जिसे वे कहते हैं
अपनी ड्यूटी
ड्यूटी की हथकड़ियों में बँधे
वे चलाते हैं गोली-डण्डा
मारते हैं पानी की बौछार
छोड़ते है आँसू गैस
वह ड्यूटी पर थके हुए जाते हैं
और थके हुए लौटते हैं घर
जी हाँ ! आप सही सोच रहे हैं
यह अँग्रेज़ों की नहीं, हमारी अपनी पुलिस है
अपने भाई-भतीजे हैं
क़ानून व्यवस्था के नाम पर
पीटते हैं हमें दुश्मन की तरह
जैसे लूटते हैं बेईमान व्यापारी
राष्ट्रवाद के नाम पर
जरा इनकी बचपन की फ़ोटो देखिए
कितनी निर्मल और प्यार से भरी आँखें हैं इनकी
तब कटी पतंगों को लूटने के लिए
वे अदृश्य पक्षी बनकर उड़ते थे
लट्टू पर घुमाते थे सारा संसार
पाठशाला में इब्राहीम की बिरयानी बेहिचक बाँटकर खाते थे
मकई के लम्बे सफ़ेद बाल लगाकर
बनते थे सान्ताक्लॉज़
यह अब कोई रहस्य नहीं है
कि किस तरह बनाया जाता है इन्हें धीरे-धीरे क्रूर
बनाया जाता है धीरे-धीरे भ्रष्ट
थोड़ा हिन्दू-थोड़ा मुसलमान
धीरे-धीरे बनाया जाता है
बांभन ठाकुर यादव लोध पासी बाल्मीकि
धीरे-धीरे वे रह जाते हैं कम पुलिस
मनुष्य तो और भी कम
फ़िलहाल कथित मुजरिमों के
वे वैधानिक सँहारक हैं
इनसे ईमानदारी का आग्रह करना
इनके प्रति हिंसा होगी
इतनी कम मिलती है पगार
बेईमानी इनके लिए सबसे बड़ी नैतिकता है
वे अक्सर मुफ़्त चाय पीते हैं
और बदले में
होटल में बालश्रम करते बच्चे को देखकर
आँखें मून्द लेते हैं
वे अक्सर ऑटों में मुफ़्त बैठते हैं
और ऑटो चालक को
ज़्यादा सवारी बैठने की छूट देते हैं
असमय बूढ़ी हो गई इनकी बेटी से
कोई जल्दी शादी नहीं करना चाहता
कोई जल्दी अपना मकान इनको किराये पर नहीं देना चाहता
कॉलेज में उसकी मीठी फब्तियों पर
जो लड़की बिन्दास उसे कभी झिड़क देती थी
कभी फिस्स से हँस देती थी उसकी शेरो-शायरी पर
अब सड़क पर अचानक उसे वर्दी में देखकर
थर्रा कर रुन्ध जाती है उसकी आवाज़
समाज में ताक़तवर दिखते
ये हिन्दी फिल्मों के लिए मसखरे हैं
इनके लिए प्रणय एक बुरा सपना है
जैसे कर्फ्यू में खोजना नमक
स्त्रियों के सपनों में वे आते हैं
डर की तरह
जीभ की तरह
पैण्ट से निकली बाहर कमीज़
और बढ़ी तोंद से कमीज़ के खुले बटनों के लिए
इनके परिष्कार की चर्चा काग़ज़ों पर ख़ूब होती है
हालाँकि सत्ता के लिए यह बारहा स्थगित काम है
शासकों की सामन्ती दुनिया में
झूठा आश्वासन ही उनका कथ्य है
और भाषा से खेलना शिल्प
उनके लिए वह जाले भरी किसी गन्दी बैरक में
खूँटी पर टँगी एक पुरानी खाकी वर्दी है
जिस पर जमी धूल दंगों के बाद
कचहरी में संविधान की किताब की तरह
कभी-कभी झाड़ ली जाती है
अपनी पीड़ा के लॉकअप में बन्द
आपकी शरीफ़ ज़बान में
वह ठुल्ला
नशे की घूँट में घुलाता है हर चिपचिपी शाम
अपनी आत्मा पर लदा अपराधबोध
सौगात में मिली
दिन भर की घृणा और बेहिसाब डँक
लड़खड़ाते हुए
बेसुरी आवाज़ में गुनगुनाता है
पुरानी फ़िल्म का कोई उदास गाना
और घुर्र-घुर्र करते पंखें के नीचे सो जाता है बेसुध
कमर झुकी बीवी के बगल में
मौत की तरह
अपने बेरोज़गार बेटे के लिए
गालियाँ ही उसका प्यार है
अगर्चे रोज़गार के रेगिस्तान में
जब उसका बेटा भरता है सिपाही भर्ती का फॉर्म
वह चिन्दी-चिन्दी कर उसे उड़ा देता है
खिड़की के बाहर
खुली हवा में