सिमरिया घाटक ट्रेनमे स्वप्नावस्थित / राजकमल चौधरी
प्लैटफार्मपर शीत-पालोमे बैसलि एकटा एकसरुआ
तीर्थयात्रिणी गाबि रहलि छलि
गंगा-वास गाम घुरि जयबाक दुःखसँ प्रेरित
कानो बटगमनी, कोनो गोहारि...
उपरका बर्थपर फोँफ कटैत दरभंगा-टाबरक एकटा बूढ़
दोकानदार; काल्हिसँ फेर वैह कपड़ाक थान
इंच भरि घोघट रखने एकटा नवकनियाँ,
ट्रेनक खिड़कीक ओहि पार, जाड़क अन्हारमे
ताकि रहल छथि कोनो एकटा फूलक गाछ।
अनेरे हमरा चिकरबाक मोन होइत अछि-
हौ राजकमल, हौ राजकमल...बेर-बेर ई अपने नाम!
नाम सुनिक,’ प्रायः क्यो एकटा परिचित लोक
हमरा लग आबय, आबि जाय।
कोनो एक टा विहुँसैत फूल, ककरो एकान्त स्मरण-चिह्न
हमरा आङुरमे, नहुँएसँ दाबि जाय।
आब कनियेँ कालक उपरान्त, फूजि जाय ई ट्रेन
साँप जकाँ ससरत;
कारी धुआँक एक टा बबंडर, मेघ जकाँ पसरत
नहि सुनि पाओत क्यो तीर्थयात्रिणीक गोहारि...
नवकनियाँ केँ नहि भेटत फूल-गाछ
हमर आँखिमे कोइलाक कनी नोर बनि जायत
हमरा चिन्हबाक लेल, आब
एहि अन्हार ट्रेनक कोठलीमे
क्यो नह आओत, आब क्यो नहि!
(मिथिला मिहिर: 10.10.65)