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सिमरी के दिअरी हे झलमल लउकल / मगही

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मगही लोकगीत   ♦   रचनाकार: अज्ञात

सिमरी<ref>सेमल। यहाँ सेमल की रूई से बनी बत्ती से तात्पर्य है</ref> के दिअरी<ref>दीपक</ref> हे झलमल लउकल<ref>दिखाई देता है</ref> दुनियाँ संसार हे।
सेहो सुनि बेटी के बाबा मनहिं बेदिल<ref>उदास, बेचैन, बेमन</ref> भेलन, ठोकि देलन<ref>ठोक दिये, बंद कर दिये</ref> बजर केवार<ref>किवाड़</ref> हे॥1॥
अपना रसोइया<ref>रसोईघर</ref> से बाहर भेलि कवन बेटी, सुनऽ बाबा बचन हमार हे।
खोलु, खोलु बाबा हो बजर केवँरिया, अहो बाबा, साजन छेकले<ref>रोक दिये</ref> दुआर हे॥2॥
कइसे में खोलूँ बेटी बजरा केवँरिया हे, आजु मोरा अकिल हेरायल<ref>खो गया, भूल गया</ref> हे।
बहिआँ<ref>बाहें</ref> धरइते जी बाबा, कुइयाँ भँसिअइतऽ<ref>गिरा देते, ढकेल देते</ref> छुटि जाइल धिआ के संताप हे॥3॥
जँघिया भरोसे गे बेटी धिआ जलमवली, मुँह सूखे<ref>सुख से</ref> कइली दुलार हे।
बहियाँ धरइते गे बेटी, छाती मोरा फाटल, कुइआँ भँसवलो न जाय हे॥4॥

शब्दार्थ
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