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सिर्फ अपनी आँख में कब तक बड़ा कोई रहे / विनय कुमार

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सिर्फ अपनी आँख में कब तक बड़ा कोई रहे।
आईना के सामने कब तक खड़ा कोई रहे।

पर पसारे मौत आई, फुसफुसाई कान में-
ज़िंदगी की क़ब्र में कब तक गड़ा कोई रहे।

तुम पराठे सेंक लो तब तक बना लू चाय मैं
प्रेम है तो फ्रेम में कब तक जड़ा कोई रहे।

मोम होने के लिए मज़बूर हर इस्पात है
भटि्ठयों मे किस तरह कबतक कड़ा कोई रहे।

खोल दो हर प्यास का मुँह छीन लो सब छतरियाँ
क्यों भरी बरसात में औंधा घड़ा कोई रहे।

बेच देते हैं बड़े साहब मुलाज़िम का ज़मीर
जिन्स बन कर दफ़्तरों में क्यों पड़ा कोई रहे।

चाहते हैं वे सडांधों की हक़ूमत मुल्क में
ख़ुद रहें या उन्ही के जितना सड़ा कोई रहे।

जश्न की हर रात चोरों के लिए सौग़ात है
सोचिए कब तक षरीके़ भागड़ा कोई रहे।