सिर्फ एक पता / रमेश तैलंग

वक्त ही वक्त होता था पहले
लोगों के पास
ओर कहने-सुनने को होती थी
दुनिया-जहान की ढेर सारी बातें।

एक ही दिन में
आ जाती थी चार-चार चिट्ठियां
आत्मीयता से भरी हुई
इकन्नी के पोस्टकार्ड पर
तिल भर जगह नहीं छोड़ते थे खाली
लिखने वाले,
‘इमके को नमस्कार,
ढिमके को आशीर्वाद...

देवदूत की तरह
लगता था डाकिया
कई-कई दिनों तक
कानों में बजता था
चिट्ठी का लिखा हुआ
एक-एक शब्द।
दूर दूर रहकर भी
तार जुड़े रहते थे आपस में
रिश्तों के!
दूरभाषी शहरों ने छीन लिया
यह भी एक निजी सुख।
अब नहीं आती
महीनों-महीनों तक एक भी चिट्ठी।
आती भी है
तो पूरी चिट्ठी में
सिर्फ एक पता ही
लगता है
अपना-सा।

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