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सिर्फ रेख़्ते में नहीं कहता / अजय कुमार

मेरे भीतर
का कवि सोचता है
चाहे कुछ भी हो
कितना भी भारी रखा हो
सीने पर एक दुख का पत्थर
मेरी हर बात
एक रेख़्ते में होनी चाहिए
रदीफ- काफिया सही मिला हुआ
हर लफ़्ज दूसरे लफ़्ज के साथ
एहतियात से रखा हुआ
होना चाहिए

पर कोई अँधेरा
बेसुरा भी हो सकता है
कितना भी रोके
कोई खुद को
दिल मुँह फाड़के
फफ़क -फफ़ककर रो भी सकता है
मेरी सुखनवरी की सींवन
बेख्याली में उधड़ भी सकती है
लफ्जों की फटी कमीज़
तमीज के झूठे कोट में से
साफ़ कभी दिख भी सकती है

शर्म मुझे नहीं
मेरे हालात को आनी चाहिए
एक शायर को
बारहा देसी शराब भी चाहिए
ख़ूने- दिल से भी सफ़े मुअत्तर होते हैं
ये हालात यकीनन हर सोच से
बदतर भी हो सकते हैं...