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सिर-फिरा कबीरा / राजेन्द्र गौतम
Kavita Kosh से
फूल खिले हैं
तितली नाचे
आओ इन पर गीत लिखें हम
भूख, ग़रीबी या शोषण से
कविता-रानी को क्या लेना ?
महानगर की चौड़ी सड़के
इन पर बन्दर-नाच दिखाएँ
अपनी उत्सव-सन्ध्याओं में
भाड़ा दे कर भाण्ड बुलाएँ
हम हैं संस्कृति के रखवाले
इसे रखेंगे शो-केसों में
मूढ़-गँवारों की चीख़ों से
शाश्वत वाणी को क्या लेना ?
लिए लुकाठी रहा घूमता
गली-गली सिर-फिरा कबीरा
दो कोड़ी की साख नहीं थी
कैसे उसको मिलता हीरा
लखटकिया –
छन्दों का स्वागत
राजसभा के द्वार करेंगे
निपट निराले
तेरे स्वर से
इस ‘रजधानी’ को क्या लेना ?